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________________ समयसार स्वपरयोरेकत्वपरिणत्या चासंयतो भवति । तावदेव परात्मनोरेकत्वाध्यासस्य करणातकर्ता भवति । यदा स्वयमेव प्रतिनियतस्वलक्षणनिर्ज्ञानात् प्रकृतिस्वभावमात्मनो बंधनिमित्तं मुञ्चति तदा स्वपरयोविभागज्ञानेन ज्ञायको भवति । स्वपरयोविभागदर्शनेन दर्शको भवति । स्वपरयो. पदिक. यावत्, एतत्, प्रकृत्यर्थ, चेतायत, एव, अज्ञायक, तावत्, मिथ्याष्टि, असंयत, यदा, चेतयित, कर्मफल, अनन्तक, तदा, विमुक्त, ज्ञायक, दर्शक, मुनि ! मुलात-- दि मुल्ल मोक्षरणे, भू सत्तायां । पदविवरण--जा यावत् ण न एव ताव तावत् जया जदा तया तदा-अव्यय । एस एषः-प्रथमा एक० । पयडीयट्ट प्रकृत्यर्थ-अव्यय । चेया चेतयिता-प्र० ए० । विमुंचए विमुंचत्ति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एकवचन क्रिया । भवति संयमी है। तात्पर्य-जब तक यह जीव कर्मफलमें एनत्वबुद्धिको नहीं छोड़ता है तब तक यह जीव अपने मिथ्या अध्याससे अज्ञानी है व कर्ता-भोक्ता है। टोकार्थ-जब तक यह प्रात्मा अपने और प्रकृतिके पृथक-पृथक प्रतिनियत स्वभावरूप लक्षाके भेदज्ञान के प्रभावसे अपने बन्धको निमित्तभूत प्रकृतिस्वभावको नहीं छोड़ता, तब तक अपने और परके एकपनेके ज्ञानसे अज्ञायक होता है, अपने परके एकपनेके दर्शन (श्रद्धान) से मिथ्यादृष्टि होता है, अपनी परके एकपनेको परिणतिसे असंयत होता है, और तभी तक पर और यात्माके एकपनेका अध्यास करनेसे कर्ता होता है । परन्तु जिस काल यही आत्मा अपने और प्रकृतिके पृथक्-पृथक् प्रतिनियत स्वलक्षणके निर्णयरूप ज्ञानसे अपने बन्धके निमित्तभूत प्रकृतिस्वभावको छोड़ देता है उस काल अपने परके विभागके ज्ञानसे ज्ञायक होता है, अपने पौर परके विभागके श्रद्धानसे दर्शक होता है, अपने परके विभागको परिणतिसे संयत होता है और उसी समय अपने परके एकपनेका अध्यास न करनेसे अकर्ता होता है । भावार्थ-यह मात्मा जव तक अपना और परका प्रतिनियत लक्षण नहीं जानता, तब तक भेदज्ञान के प्रभाव से कर्मप्रकृतिके उदयको अपना समझकर वैसे. विकल्परूपसे परिणमता है । यों वह मिथ्याइष्टि अज्ञानी असंयमी होकर कर्ता होता हुआ कमका बन्ध करता है । किन्तु जब भेदज्ञान हो जाता है है तब उसका न कर्ता बनता है न कर्मका बन्ध करता है केवल ज्ञाता द्रष्टा रहता हुमा स्व. भावके अनुरूप परिणमता है। अब भोक्तापन भी प्रात्माका स्वभाव नहीं हैं इसकी सूचना करते हैं--मोक्तृत्वं इत्यादि । अर्थ-कर्तापन की तरह भोक्तापन भी इस चैतन्यका स्वभाव नहीं है यह अज्ञानसे ही भोक्ता है । अज्ञानका प्रभाव होनेसे भोक्ता नहीं होता । भावार्थ-कर्मफलसे निराला ज्ञानमात्र प्रात्मस्वरूपका सानुभव ज्ञान पा लेनेके बाद ज्ञानी कर्मफलका प्रभोक्ता है। ...MRAAN
SR No.090405
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherBharat Varshiya Varni Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1995
Total Pages723
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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