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________________ ५ सर्वविशुद्धज्ञानाधिकार जा एसो पयडीयट्ट चेया णेव विमुचए। अयाणयो हवे ताव मिच्छादिही असंजो ॥३१४॥ जया विमुञ्चए चेया कम्मप्फलमणंतयं । तया विमुत्तो हवइ जागानो पासो मुणी ॥३१५॥ प्राकृतिक इन तंत्रोंको, जब तक जोव न छोड़ता। प्रजानी बना तब तक, मिथ्यादृष्टी असंयमी ॥३१४॥ जब छोड़ देता पात्मा, अनन्त सब कर्मफल । तब निर्बन्ध हो होता, ज्ञायक दर्शक व संयमी ॥३१५।। यावदेष प्रकृत्यर्थ चेतयिता नव विमुंचति । अज्ञायको भवेत्तान्मिथ्याष्टिरसंयतः ॥ ३१४ 11 यदा विमुचति चेतयिता कर्मफलमनंतक । तदा विमुक्तो भवति ज्ञायको दर्शको मुनिः ।। ३१५ ।। यावदयं चेतयिता प्रतिनियतस्वलक्षणानिनिात प्रकृतिस्वभावमात्मनो बंधनिमित्तं न मुञ्चति तावत्स्वपरयोरेकत्वज्ञानेनाज्ञायकों भवति । स्वपरयोरेकत्वदर्शनेन मिथ्यादृष्टिभवति । नामसंज्ञा , एत, पयडीयठें, चेया, ण, एव, अयाण, ताव मिच्छाइट्टि, असंजअ, जया, चेया, कम्मप्फल, अणतय, तया, विमुत्त, जाणअ, पासअ, मुणि । धातुसंस--वि-मुंच त्यागे, हब सत्तायां । प्रातिबंधनसे संसार देखा जाता है । (११) इसी बंध और संसार होनेके कारण जीव और प्रकृति के कर्तृकर्मत्वका व्यवहार होता है । (१२) निश्चयसे जीव और प्रकृतिमें कर्तृकर्मत्व नहीं है। सिद्धान्त--{१) कर्मोदयविपाकके सान्निध्यमें जीव विकाररूप परिणमता है । (२) जीवके विकारभावके निमित्तसे कर्मबन्ध होता है। दृष्टि--१- उपाधिसापेक्ष अशुद्ध द्रव्याथिकनय (२४) । २- निमित्तदृष्टि (५३५)। प्रयोग--भेदविज्ञान के प्रभावसे यह सब कर्मबन्धन व संसारसंकट हो रहा है यह जानकर प्रात्मस्वभाव और कर्मस्वभावके लक्षणका यथार्थ परिचय प्राप्त करना ।।३१२-३१३।। अब कहते हैं कि जब तक प्रात्मा प्रकृतिके सिमित्तसे उपजना विनशना न छोड़े तब तक वह अज्ञानी मिथ्यादृष्टि असंयत है.---[एष चेतयिता] यह प्रात्मा [यावत् जब तक [प्रकृत्यथं] प्रकृति के निमित्तसे उपजना विनशना [नव विमुशति] नहीं छोड़ता [तायत्] तब तक [अज्ञायकः] अज्ञानी, [मिथ्यादृष्टिः] मिथ्यादृष्टि, [असंयतः] असंयमी [भयेत्] है । [यवा] पौर जब [चेतयिता] प्रात्मा [अनंतक] अनन्त [कर्भफल] कर्मफलको [विमुञ्चति] छोड़ देता है [तवा] उस समय [विमुक्तः] बन्धसे रहित, [जायकः दर्शकः] ज्ञाता, द्रष्टा [मुनिः
SR No.090405
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherBharat Varshiya Varni Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1995
Total Pages723
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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