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समयसार
मुत्पत्तिविनाशावासादयति च एवमनयोरात्मप्रकृत्योः कर्तृ कर्म भावाभावेप्यन्योन्यनिमित्तनैमित्तिकभावेन द्वयोरपि बंधो दृष्टः, ततः संसारः तत एव च तयोः कर्तृकर्मव्यवहारः ।। ३१२-३१३॥ प्रादुर्भावि । पदविवरण - चेया चेतयिता- प्रथमा एक० । उ तु एवं पथडीयट्ठ प्रकृत्यर्थं चेयय चेतकार्थं पि अपि य च - अव्यय । उप्पज्जइ उत्पद्यते वर्तमान लट् अन्य पुरुष एकवचन । विणस्स विदश्यते वर्तमान लट् अन्य पुरुष एक० । एवं अव्यय । बंधो बन्धः-प्र० एक० । दुण्हं षष्ठी बहु० । द्वयोः षष्ठी द्विवचन । अष्णोष्ण पच्चया अन्योन्यप्रत्ययात् पंचमी एक० । वे भवेत् विधिलिङ अन्य पुरुष एकवचन । अप्पणो आत्मनः षष्ठी ए० । पयडीए प्रकृतेः षष्ठी एक० । संसारो संसार - प्र० एक० । तेण तेन तृ० एक० । जाए जायते वर्तमान जद् अन्य पुरुष एकवचन क्रिया ।। ३१२-३१३ ।।
भेदज्ञान न होनेसे पर और आत्माके एकपनेका प्रध्यास करनेसे परद्रव्यका कर्ता होता हुआ ज्ञानावरण आदि कर्मकी प्रकृतिके निमित्तसे उत्पत्ति और विनाशको प्राप्त होता है । और प्रकृति भी आत्मा निमित्तसे उत्पत्ति और विनाशको प्राप्त होती है याने श्रात्म के परिणाम के अनुसार परिणमती हैं । इस तरह श्रात्मा और प्रकृति इन दोनोंके परमार्थसे कर्ता कर्मपनेके भावका प्रभाव होनेपर भी परस्पर निमित्तनैमित्तिक भावसे दोनोंके हो बंध देखा जाता है . उस बंध से संसार होता है, और उसीसे दोनोंके कर्ता-कर्मका व्यवहार चलता है । भावार्थश्रात्मा और प्रकृतिके परमार्थसे कर्ता कम्पनेका प्रभाव है तो भी परस्पर निमित्तनैमित्तिक भाव से कर्ता-कर्म भाव है इससे हो बन्ध है मोर बंधसे हो संसार है ।
प्रसंगविवरण – अनन्तरपूर्व गाथाचतुष्कमें जीवको प्रकर्ता बताते हुए यह संकेत किया गया है कि वास्तव में प्रकर्ता होनेपर भी जीवका प्रकृतियोंके साथ जो बन्ध होता है वह अज्ञान की ही लोला है । अब इन दो छन्दोंमें उसी प्रज्ञानलीलाका दिग्दर्शन कराया गया है ।
तथ्यप्रकाश--- ( १ ) अन्य अन्य द्रव्य होनेके कारण आत्मा और प्रकृतिमें कर्तृ कर्मभाव बिल्कुल नहीं है । ( २ ) ग्रात्मा और प्रकृति में कर्तृकर्मत्व न होनेपर भी उनका बन्ध मात्र निमित्तनैमित्तिक भावसे होता है । (३) निमित्तनैमित्तिक भावके कारण जीव प्रौर प्रकृति में कर्तृत्व व्यवहार कर लिया जाता है । (४) जीवके विकाररूप नैमित्तिक भाव होनेका मूल कारण आत्मभाव व कर्मभाव में एकत्वबुद्धि है । (५) जीवककत्वबुद्धिका कारण प्रतिनियत स्वलक्षणका प्रज्ञान है । ( ६ ) जीव प्रकृतिके निमित्तसे अपना उत्पाद विनाश करता है । (७) प्रकृति जीवके निमित्तसे अपना उत्पाद विनाश करता है । (८) प्रथवा जीव प्रकृतिके लिये याने प्रकृतिबंधादि होनेके लिये उत्पाद विनाश करता है अर्थात् विभावरूप परिणमता है । ( ६ ) प्रकृति जीवके लिये याने साता प्रसाता रागद्वेष आदि होनेके लिये अपना उत्पाद विनाश करता है अर्थात् उदय उदीरणा निर्जरादि करता है । (१०) आत्मा मोर प्रकृतिके