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सर्व विशुद्धानाधिकार
चेया उपयडीयट उप्पज्जइ विणस्सह । पडीवि चेयय उप्पज्जह विवरसह ॥ ३९२ ॥ एवं बंधो उदण्प अण्णोष्णुप्पच्चया हवे |
पण पयडीए य संसारो तेण जायए ||३१३ || ( युग्मम् )
आत्मा प्रकृतिके निर्मित, उपजता विनशता तथा । प्रकृति भी जीवके निमित, उपजती विनशती तथा ॥ ३१२॥ होता यों बन्ध दोनोंका, परस्परके 'निमित्तसे ।
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श्रात्मा तथा प्रकृतिके, होता भव इस बच्वसे ॥३१३॥
चेतयिता तु प्रकृत्यर्थमुत्पद्यते । विनश्यति प्रकृतिरपि चेतकार्थमुत्पद्यते विनश्यति ।। ३१२ ॥ एवं बंधस्तु द्वयोरपि अन्योन्यप्रत्ययाद्भवेत् । आत्मनः प्रकृतेश्च संसारस्तेन जायते ।। ३१३ ।। अयं हि संसारत एवं प्रतिनियतस्वलक्षणानिर्ज्ञानेन परात्मनोरेकत्वाध्यासस्य कर कर्ता सन् चेतयिता प्रकृतिनिमित्तमुत्पादविनाशावासादयति । प्रकृतिरपि चेतयितृनिमित्त
नामसंज्ञ - चेया, उ, पर्याडियट्ठे, पर्याड, वि, चेययठ्ठे, एवं, बन्ध, उ, दु, पि, अणण्णोणपच्चय, अप्प, पर्याड, य, संसार, त । धातुसंज्ञ उब पज्ज गती, वि नस्स नाशे, हव सत्तायां, जा प्रादुर्भाव । प्रातिपदिक चेतयितृ, तु, प्रकृत्यर्थ, प्रकृति, अपि चेतकार्य, एवं बंध, तु, द्वि, अपि, अन्योन्यप्रत्यय, आत्मन् प्रकृति, च, संसार, तत् । मूलघातु-उत् पद गतो, वि णस अदर्शने दिवादि, भू सत्तायां, जनो रागादि अपराधको अन्तर्दृष्टिके बलसे दूर करना और सर्वविशुद्ध ज्ञानभाव में प्रापा अनुभ वना ॥ ३०८-३११ ।।
अब इस प्रज्ञानको महिमाको प्रकट करते हैं: - [ चेतयिता तु] चेतयिता श्रात्मा तो [ प्रकृत्यर्थं ] ज्ञानावरणादि कर्मको प्रकृतियोंके निमित्तसे [ उत्पद्यते ] उत्पन्न होता है [ विनश्यति ] तथा विनाशको प्राप्त होता है और [ प्रकृतिरपि ] प्रकृति भी [ चेतकार्थं] चेतक आत्मा के लिये [उत्पद्यते ] उत्पन्न होती है [विनश्यति ] तथा विनाशको प्राप्त होती है । [ एवं ] इस तरह [आत्मनः च प्रकृतेः ] श्रात्मा और प्रकृति [ द्वयोः ] दोनोंके [ अन्योन्यप्रत्ययात् ] परस्पर निमित्तसे [बंध: ] बंध होता है [ च तेन ] और उस बंधसे [ संसारः जायते ] संसार उत्पन्न होता है ।
तात्पर्य - जीव और जीवकर्म में परस्पर कर्ता कर्मभाव तो नहीं है, किन्तु दोनों के विकारपरिणमन में वे दोनों परस्पर एक दूसरेके निमित्तभूत हैं।
टोकार्थ - यह आत्मा अनादि संसारसे ही अपने और बंधके पृथक्-पृथक् लक्षणका