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________________ ५३० समयसार विशुद्धः स्वरसतः स्फुरच्चिज्ज्योतिभिश्छुरितभुवनाभोगभवनः । तथाप्यस्यासो स्याद्यदिह किल बंधः प्रकृतिभिः स खल्वज्ञानस्य स्फुरति महिमा कोपि गहनः ।।१६५ ॥ ३०८-३११ ।। प्रथमा एक । तेण तेन-तृतीया एक । स स:-प्र० एक० । होइ भवति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एकवचन । कम्म कर्म-द्वि० एकः । पडुच्च प्रतीत्य-असमाप्तिको क्रिया। कत्ता कर्ता-प्रथमा एक० । कत्तार कारंद्वि० एक० । कम्माणि कर्माणि-द्वि० बहुः । उप्पज्जंति उत्पद्यते-वर्तमान लट् अन्य पुरुष बहुवचन । णियमा नियमात--पंचमी एक० । सिद्धी सिद्धिः-प्र० एक० । दीसए दृश्यते-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एकल क्रिया । अण्णा अन्या-प्रथमा एकवचन ।। ३०५-३११ ।। गुण सब एक ही समयमें हैं। ४- क्रमनियमित परिणाम पर्यायोंको कहते हैं, क्योंकि पर्याय सब एक साथ नहीं रहते, किन्तु एक-एक समयमें पदार्थका एक-एक ही परिणमन होता है । ५- सर्व द्रव्योंकी एक-एक पर्याय रहने से एक समय में अनन्त पर्यायका होना कहना गुणदृष्टिके प्राश्रित कथन है । ६- कोई भी पदार्थ किसी दूसरे पदार्थको पर्यायोंसे उत्पन्न नहीं होता। ७.- जीव अपनी पर्यायोंसे उत्पन्न होता हुमा जीव ही तो है । ८- अजीब (प्रकृतमें कर्म) अपनी पर्यायोंसे उत्पन्न होता हुआ अजीव ही तो है । - अपनो पर्यायोंसे ही उत्पद्यमान जीवका अजीव न तो कार्य है और न कारण है । १०- अपनी पर्यायोंसे ही उत्पद्यमान अजीव (प्रकृतमें कर्म) का जीव न कार्य है, न कारण है । ११- जीवके विकारभावका निमित्त पाकर कार्मारणवर्गणा पने पनिसायदो कर्मरूप हो जाती हैं । १२- कर्मके उदयादिका निमित्त पाकर जीव अपने परिणमन विकार विचार प्रादिरूप परिणम जाता है । १३-निमित्तमितिक भावके कारण लोक जीवको कर्मका कर्ता कह देते हैं। १४- निमित्तनैमित्तिक भावके कारण लोक कर्मको जीवके विकल्प विचार प्रादिका कर्ता कह देते हैं । १५-- जीवके गुण, पर्याय जीवसे अभिन्न हैं । १६- अजीवकी गुण, पर्याय अजीवसे भिन्न हैं। सिद्धान्त---१- जोवके विकल्प विचार प्रादि जीवसे अभिन्न हैं। २- अजीवके द्वारा जीबका गुण पर्याय अादि कुछ भी नहीं हो सकता । ३-- जीव कर्म प्रादि समस्त परभावका प्रकर्ता है 1 ४- सभी पदार्थ अपने-अपने परिणामके ही कर्ता होते हैं । ५- उपचारसे जीवको कर्मका कर्ता कहा जाता है । ६- उपचारसे ही कर्मको जीवके रागादिविकारका कर्ता कहा जाता है ।७- उपचारसे ही कर्मको जीवके रागादिविकारका कर्ता कहा जाता है । दृष्टि-१- सभेद अशुद्ध निश्चयनय (४७) । २- परद्रव्यादिग्राहक द्रव्याथिकनय । (२६) । ३- प्रतिषेधका शुद्धनय (४६ अ)। ४-- उपादानदृष्टि (४६ब) । ५, ६, ७- परकर्तृत्व अनुपचारित पर भूतव्यवहार । प्रयोग- अपने अपराधसे अपना विकारपरिणमन होना जानकर नैमित्तिक मोह
SR No.090405
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherBharat Varshiya Varni Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1995
Total Pages723
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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