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समयसार विशुद्धः स्वरसतः स्फुरच्चिज्ज्योतिभिश्छुरितभुवनाभोगभवनः । तथाप्यस्यासो स्याद्यदिह किल बंधः प्रकृतिभिः स खल्वज्ञानस्य स्फुरति महिमा कोपि गहनः ।।१६५ ॥ ३०८-३११ ।। प्रथमा एक । तेण तेन-तृतीया एक । स स:-प्र० एक० । होइ भवति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एकवचन । कम्म कर्म-द्वि० एकः । पडुच्च प्रतीत्य-असमाप्तिको क्रिया। कत्ता कर्ता-प्रथमा एक० । कत्तार कारंद्वि० एक० । कम्माणि कर्माणि-द्वि० बहुः । उप्पज्जंति उत्पद्यते-वर्तमान लट् अन्य पुरुष बहुवचन । णियमा नियमात--पंचमी एक० । सिद्धी सिद्धिः-प्र० एक० । दीसए दृश्यते-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एकल क्रिया । अण्णा अन्या-प्रथमा एकवचन ।। ३०५-३११ ।। गुण सब एक ही समयमें हैं। ४- क्रमनियमित परिणाम पर्यायोंको कहते हैं, क्योंकि पर्याय सब एक साथ नहीं रहते, किन्तु एक-एक समयमें पदार्थका एक-एक ही परिणमन होता है । ५- सर्व द्रव्योंकी एक-एक पर्याय रहने से एक समय में अनन्त पर्यायका होना कहना गुणदृष्टिके प्राश्रित कथन है । ६- कोई भी पदार्थ किसी दूसरे पदार्थको पर्यायोंसे उत्पन्न नहीं होता। ७.- जीव अपनी पर्यायोंसे उत्पन्न होता हुमा जीव ही तो है । ८- अजीब (प्रकृतमें कर्म) अपनी पर्यायोंसे उत्पन्न होता हुआ अजीव ही तो है । - अपनो पर्यायोंसे ही उत्पद्यमान जीवका अजीव न तो कार्य है और न कारण है । १०- अपनी पर्यायोंसे ही उत्पद्यमान अजीव (प्रकृतमें कर्म) का जीव न कार्य है, न कारण है । ११- जीवके विकारभावका निमित्त पाकर कार्मारणवर्गणा पने पनिसायदो कर्मरूप हो जाती हैं । १२- कर्मके उदयादिका निमित्त पाकर जीव अपने परिणमन विकार विचार प्रादिरूप परिणम जाता है । १३-निमित्तमितिक भावके कारण लोक जीवको कर्मका कर्ता कह देते हैं। १४- निमित्तनैमित्तिक भावके कारण लोक कर्मको जीवके विकल्प विचार प्रादिका कर्ता कह देते हैं । १५-- जीवके गुण, पर्याय जीवसे अभिन्न हैं । १६- अजीवकी गुण, पर्याय अजीवसे भिन्न हैं।
सिद्धान्त---१- जोवके विकल्प विचार प्रादि जीवसे अभिन्न हैं। २- अजीवके द्वारा जीबका गुण पर्याय अादि कुछ भी नहीं हो सकता । ३-- जीव कर्म प्रादि समस्त परभावका प्रकर्ता है 1 ४- सभी पदार्थ अपने-अपने परिणामके ही कर्ता होते हैं । ५- उपचारसे जीवको कर्मका कर्ता कहा जाता है । ६- उपचारसे ही कर्मको जीवके रागादिविकारका कर्ता कहा जाता है ।७- उपचारसे ही कर्मको जीवके रागादिविकारका कर्ता कहा जाता है ।
दृष्टि-१- सभेद अशुद्ध निश्चयनय (४७) । २- परद्रव्यादिग्राहक द्रव्याथिकनय । (२६) । ३- प्रतिषेधका शुद्धनय (४६ अ)। ४-- उपादानदृष्टि (४६ब) । ५, ६, ७- परकर्तृत्व अनुपचारित पर भूतव्यवहार ।
प्रयोग- अपने अपराधसे अपना विकारपरिणमन होना जानकर नैमित्तिक मोह