SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 580
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ संविशुशानाधिकार ५२६ कार्यकारण भावो न सिद्धधति, सर्वद्रव्याणां द्रव्यांतरेण सहोत्पाद्योत्पादकभावाभावात् । तदसिद्धौ घाजीवस्य जीवकर्मत्वं न सिद्धयति । तदसिद्धी च कर्तृकर्मणोरनन्यापेक्षसिद्धत्वात् जोवस्याजीवकर्तृत्वं न सिद्धति, प्रतो जीवोऽकर्ता प्रतिष्ठते । अकर्ता जीवोऽयं स्थित इति सिद्धि, तु, न, अन्या । मूलधातु--उत् पद गती, झा अवबोधने, भू सत्तायां, प्रति इण् गती, इशिर् प्रेक्षणे । प्रदविवरण--दवियं द्रव्यं-प्रथमा एकवचन। दुतु-अव्यय । पजहि पर्याय:-तृतीया बहुवचन 1 कणयं कनक-प्रथमा एक० । अणण्णं अनन्य-प्रथमा एक० । इह-अव्यय । जीवस्स जीवस्य अजीवस्स अजीवस्यषष्ठी एक० । दुतु-अव्यय 1 जे ये परिणामा परिणामा:-प्रथमा बहु० । देसिया देशिता:-प्रथमा बहु० । सुत्ते सूत्रे-सप्तमी एक० । तं जीवं अजी-द्वितीया एक । तेहि तै:-तृ० बह । अणणं अनन्यं-द्वितीया एक० । वियाणाहि विजानीहि-आशार्थे लोट् मध्यम पुरुष एकवचन । ण न-अव्यय । कुदोचि कदाचित्अध्यय । वि अपि ण न ण न ण न य च दु तु ण न-अध्यय । उपपणी उत्पन्न:-प्रथमा एक० । जम्हा यस्मात्-पंचमी एक० । कज्ज कार्य-प्रथमा एकवचन। तेण तेन-त० एक० । आदा आत्मा-प्र० एक० । उप्पादेदि उत्पादयति-वर्तमान लट् प्रथम पुरुष एकवचन णिजन्त क्रिया। किंचि किंचित-अव्यय । कारणंपरिणाम हो जीवके कर्म हैं। इसी तरह अजीव अपने परिणामोंका कर्ता है उसके परिणाम उसके कर्म हैं । इस प्रकार जीव अन्यके परिणामोंका अकर्ता है। अब इस प्रर्थके कलशल्प काव्यमें जीय प्रकर्ता है तो भी इसके बंध होता है यह प्रशानकी महिमा है ऐसा कहते हैं-प्रकर्ता इत्यादि । अर्थ--इस तरह अपने निज रससे विशुद्ध और स्फुरायमान चेतन्यज्योतिसे . व्याप्त हुया है लोकका मध्य जिसके द्वारा ऐसा यह जीव अकर्ता स्थित है तो भी इसके इस लोकमें प्रकट कर्म प्रकृतियोंसे बंध होता है, सो यह निश्चयत: प्रज्ञानकी ही कोई महम महिमा है। भावार्थ-जिसका ज्ञान सब ज्ञेयोंमें व्यापने वाला है ऐसा यह जीव शुद्धनयसे प्रकर्ता ही है तो भी इसके कर्मका बंध होता है यह कोई अज्ञानकी बड़ी करतूत है । प्रसंगविवरण--"भूयत्थेणाभिगया" इत्यादि अधिकार माथामें कथित जीव, अजीव, पुण्य, पाप, पासव, संघर, निर्जरा, बंध, मोक्ष इन नव पदार्थोका वर्णन किया जा चुका । अब अन्तमें समयसारके लक्ष्यभूत सर्वविशुद्ध शानका वर्णन करनेके लिये सर्वविशुद्धज्ञाना. धिकार नामका मंतिम अधिकार पाया है। इसमें सर्वप्रथम दृष्टान्तपूर्वक प्रात्माका कर्तृत्व प्रकट किया गया है। तथ्यप्रकाश-१- प्रत्येक पदार्थ अपने-अपने परिणामोंसे (पर्यायोंरूपसे) उत्पद्यमान होता रहता है। २- परिणाम दो प्रकारके होते हैं---(१) सहनियमित परिणाम, (२) क्रम. नियमित परिणाम । ३-सहनियमित परिणाम गुणोंको याने शक्तियोंको कहते हैं, क्योंकि अनंत
SR No.090405
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherBharat Varshiya Varni Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1995
Total Pages723
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy