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________________ १५२ समयसार भवति तज्ज्ञानमेव न अवतीति ज्ञानांशो ज्ञाननयोपि निरस्तः । परपरणतिमुज्झत् खंडयभेदवादानिदमुदितमखंडं ज्ञानमुच्चंडमुच्चैः । ननु कथमवकाशः कर्तृकर्मप्रवृत्तेरिह भवति कथं वा पौद्गलः कर्मबंधः ।।४५|| ।।७२॥ पंचम्यां तसल् । निवृत्ति-द्वितीया एक० । करोति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एकवचन । जीवः-प्रथमा एकवचन कर्ता ।।७२।। उपचार है। दृष्टि- १- शुद्धभावनापेक्ष शुद्ध द्रव्यार्थि कनय (२४ ब) । २. एकजातिपर्याय अन्यजातिपर्यायोपचारक प्रसद्भूत व्यवहार (१०७)। प्रयोग-विकार भावोंको अशुचि, विपरीत ब दुःखकारण जानकर उनसे उपेक्षा करके अपने पवित्र शान्तिधाम आत्मामें उपयोगको रमानेका पौरुष करना ।।७२।। अब जिज्ञासा होती है कि प्रास्रवोंसे किस तरह निवृत्ति होती है ? उसका उत्तररूप गाथा कहते हैं-- ज्ञानी विचारता है कि [खलु] निश्चयतः [प्रहं] मैं [एकः] एक हूं [शुद्धः] शुद्ध हूं [निर्ममतः] ममतारहित हूं [ज्ञानदर्शनसमग्रः] ज्ञान दर्शनसे पूर्ण हूं [तस्मिन् स्थितः] ऐसे स्वभावमें स्थित [तश्चितः] उसी चैतन्य अनुभवमें लीन हुआ [एतान] इन [सर्वान] क्रोधादिक सब प्रास्रवोंको [क्षयं] क्षयको [नयामि] प्राप्त कराता हूं। तात्पर्य--अपनेको एक शुद्ध प्रविकार ज्ञानदर्शनधन निरखनेसे इसी स्वभाव में प्रात्मा लोन होता है और तब प्रास्रव दूर हो जाते हैं। टोकार्थ- यह मैं प्रात्मा प्रत्यक्ष अखंड, अनंत, चैतन्यमात्र ज्योतिस्वरूप, अनादि, अनंत नित्य उदयरूप, विज्ञानधन स्वभाव रूपसे तो एक हूं और समस्त कर्ता, कर्म, करण, संप्रदान, अपादान, अधिकरणस्वरूप जो कारकोंका समूह उसकी प्रक्रियासे उत्तीर्ण याने दूरवर्ती निर्मल चैतन्य अनुभूति मात्ररूपसे शुद्ध हूं । तथा जिनका पुद्गलद्रव्य स्वामी है ऐसे क्रोधादि भावोंको विश्वरूपता (समस्तरूपता) के स्वामित्वसे सदा ही नहीं परिणमनेके कारण उनसे ममतारहित हूं । तथा वस्तुका स्वभाव सामान्यविशेषस्वरूप है और चैतन्यमात्र तेज पुंज भी वस्तु है, इस कारण सामान्यविशेषस्वरूप जो ज्ञानदर्शन उनसे पूर्ण हैं। ऐसा आकाशादि द्रव्य की तरह परमार्थस्वरूप वस्तुविशेष हूं । इस कारण मैं इसी प्रात्मस्वभावमें समस्त परद्रव्यसे प्रवृत्तिकी निवृत्ति करके निश्चल स्थित,हमा समस्त परद्रव्यके निमित्तसे जो विशेष रूप चैतन्य में चंचल कल्लोलें होती थीं, उनके निरोधसे इस चैतन्यस्वरूपको ही अनुभव करता हुअा अपने ही अज्ञानसे प्रात्मामें उत्पन्न होते हुए क्रोधादिक भावोंका क्षय करता हूं ऐसा प्रात्मामें निश्चय कर तथा जैसे बहुत कालका ग्रहण किया जो जहाज था, उसे जिसने छोड़ दिया है,
SR No.090405
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherBharat Varshiya Varni Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1995
Total Pages723
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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