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कत कर्माधिकार वेषु प्रवृत्तं चेत्तदपि तदभेदज्ञानाल तस्य विशेषः । प्रास्रवेभ्यो निवृत्तं चेतहि कथं न ज्ञानादेव बंधनिरोधः इति निरस्तोऽज्ञानांशः क्रियानयः । यत्त्वात्मारवयोर्भेदज्ञानमपि नास्रवेभ्यो निवृत्तं चित्वं-द्वितीया एकवदन । च–अव्यय । विपरीतभावं-द्वितीया एक० । दुःखस्य-षष्ठी एक० । कारणंद्वितीया एकवचन अथवा उक्त तीनों प्रथमा विभक्ति एकवचन । इति-अव्यय । त-अव्यय । ततः-अव्यय नहीं है।
अब यही कलशरूप काव्य में कहते हैं—'परपरिणति' इत्यादि । अर्थ-घरपरिणतिको छोड़ता हुआ, भेदके कथनोंको तोड़ता हुप्रा यह प्रखण्ड तथा अत्यन्त प्रचण्ड ज्ञान यहाँ उदित हना है । अहो ऐसे ज्ञान में परद्रव्यविषयक तथा विकारविषयक कर्ताकर्मप्रवृत्तिका अवकाश कैसे हो सकता है तथा पौद्गलिक कर्मबन्ध भी कैसे हो सकता है ? भावार्थ-कर्मबन्ध तो अज्ञानसे हुए कर्ताकर्मकी प्रवृत्तिसे था । अब जब भेदभावको और परपरिणतिको दूर कर एकाकार ज्ञान प्रकट हुना तब भेदरूप कारककी प्रवृत्ति मिट गई, फिर कैसे बन्ध हो सकता है ? नहीं हो सकता।।
प्रसंगविवरण-अनन्तरपूर्व माथामें बताया गया था कि जिस समय आत्मा और पासवमें भेदज्ञान हो जाता है, तो ऐसे ज्ञानमात्रसे उस समय बन्धका निरोध हो जाता है । सो यहाँ यह जिज्ञासा होना प्राकृतिक है कि ज्ञानमात्रसे हो बंधनिरोध कसे हो जाता है, इस जिज्ञासाका समाधान इस गाथामें दिया गया है।
तथ्यप्रकाश----१-प्रात्मा और प्रास्त्रवमें पारमार्थिक भेदज्ञान होनेपर ज्ञानीका उपयोग क्रोधादिक प्रास्रवोंसे हट जाता है । २- प्रास्रवोंमें (रागादिक भावोंमें) मलीनता होनेसे अपवित्रता है, किन्तु भगवान प्रात्मामें सहज शुद्ध अविकार निर्मल चेतना होनेसे परिपूर्ण पवित्रता है । ३- भगवान प्रात्मा तो स्वयं ज्ञानधन होने के कारण स्वयं ज्ञाता होनेसे अनन्यस्वभाव है चैतन्यस्वभावमय है, किन्तु प्रास्रब जड़स्वभाव है और परके द्वारा (जीवके द्वारा) ज्ञेय हैं अतः अन्यस्वभाव हैं । ४- प्रास्त्रव तो प्राकुलताके उत्पादक होनेसे दुःखके कारण हैं, किन्तु भगवान मात्मा अनामुलस्वभाव होनेसे जाननके सिवाय अन्य कुछ कार्य नहीं करनेसे दुःखका अकारण है। ५-प्रास्रव सौर आत्मामें भेदज्ञान होना प्रास्रवनिवृत्तिका अविनाभावी है, अत: ऐसे ज्ञानमात्रमे अज्ञानजन्य पौद्गलिक कर्मके बन्धका निरोध हो जाता है । ६-जहाँ परपरिणति हट रही हो, भेदवादनहीं हो, अखंड ज्ञानस्वभाव उपयोगमें उदित हो वहाँ कर्ताकर्मप्रवृत्ति नहीं हो सकती और प्रत एव पौद्गलिक कर्मबंध भी नहीं होता।
सिद्धान्त-उपयोगकी आत्माके प्रति अभिमुखता पौद्गलिक · कर्मबन्ध निरोधका निमित्त है । २-जीवक्रोध ब अजीवक्रोधमें भिन्न-भिन्न द्रव्याश्रयता है, उसमें सम्बन्ध मानना