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समयसार स्वस्वभावेनाकार्यकारणत्वाद् दुःखस्याकारणमेव । इत्येवं विशेषदर्शनेन यदैवायमात्मास्रवयोर्भेदं जानाति तदैव क्रोधादिभ्य प्रास्त्रवेभ्यो निवर्तते । तेभ्योऽनिवर्तमानस्य पारमार्थिकतद्भेदज्ञाना. सिद्धेः । ततः क्रोधाद्यास्रवनिवृत्त्यविनाभाविनो ज्ञानमात्रादेवाज्ञानस्य पौद्गलिकस्य कर्मणो बंधनिरोधः सिद्धयेत् । किंच यदिदमात्मास्त्रत्रयोर्भेदज्ञानं तत्किमज्ञानं किंवा ज्ञानं ? यद्यज्ञान तदा तदभेदज्ञानान्न तस्य विशेषः । जानं चेत् किमानवेष भवनं कि वासदेभ्यो निवत्तं ? अास्त्रकारण, इति, च, ततः, निवृत्ति, जीव । मूलधातु--- ज्ञा अवबोधने, आ-स्त्र, गतौ, अ-शुच्य अभिषचे, नि-वतु । बारणे दिवादि, डुकृत्र करणे । परिवरण--शात्वा-असमाप्तिकी क्रिया । आसवाणां--पष्ठी बहु० । अशु- | भेदज्ञान है वह अज्ञान है कि ज्ञान ? यदि अज्ञान है तो प्रासबसे अभेदज्ञान होनेसे उसका कोई । अन्तर न हुमा, तथा यदि वह ज्ञान है तो प्रास्रवों में प्रवृत्तिरूप है या उनसे निवृत्तिरूप है ? यदि अाम्न वोंमें प्रवर्तता है तो वह शान आत्रवोंसे अभेदरूप अज्ञान ही है इससे भी कोई विशे. पता न हुई और यदि यह ज्ञान प्रास्रवोंसे निवृत्तिरूप है तो ज्ञानसे ही बंध का निरोध क्यों नहीं कह सकते ? सिद्ध हुआ ही कह सकते हैं। ऐसा सिद्ध होनेपर अज्ञान के अंश नियानयका खण्डन हुया । तथा जो प्रात्मा और प्रास्रत्रोंका भेदज्ञान है वह भी प्रास्रवोंसे निवृत्त न हया तो वह ज्ञान ही नहीं है, ऐसा कहनेसे ज्ञान के अंशरूप ज्ञाननयका निराकरण हया।
भावार्थ-प्रास्रव अशुचि हैं, जड़ हैं, दुःखके कारण हैं, और प्रात्मा पवित्र है, ज्ञाता है, सुख स्वरूप है । इस प्रकार दोनोंको लक्षणभेदसे भिन्न जानकर आत्मा पानवोंसे निवृत्त होता है और उसके कर्मका बंध नहीं होता । यदि ऐसा जाननेसे भी कोई निवृत्त न हो तो वह ज्ञान ही नहीं है, प्रज्ञान ही हैं। प्रश्न-अविरतसम्यग्दृष्टिके मिथ्यात्व और अनन्नानुबंधी प्रकृतियोंका तो प्रास्रव नहीं होता, परन्तु अन्य प्रकृतियोंका तो प्रास्त्रव व बन्ध होता है, वह ज्ञानी है या अज्ञानी ? समाधान ----सम्यग्दृष्टिके प्रकृतियोंका जो बंध होता है, वह अभिप्रायपूर्वक नहीं है, सम्यग्दृष्टि होने के पश्चात् परद्रव्यके स्वामित्वका अभाव है। इस कारण जब तक इसके चारित्रमोहका उदय है तब तक उसके उदयके अनुसार प्रानब बंध होते हैं, उसका स्वामित्व नहीं है । वह अभिप्रायमें निवृत्त होना ही चाहता है, इसलिए ज्ञानी ही कहा जाता है । मिथ्यात्वसम्बन्धी बन्ध ही अनंत संसारका कारण है, यही यहाँ प्रधानतासे विवक्षित है । जो अविरतादिकसे बन्ध होता है, बह अल्पस्थिति अनुभागरूप है, दीर्घ संसारका कारण नहीं है, इसलिए प्रधान नहीं गिना जाता। ज्ञान बंधका कारण नहीं है । जब तक ज्ञानमें मिथ्यास्वका उदय था तब तक अज्ञान कहलाता था, मिथ्यात्व चले जानेके बाद प्रज्ञान नहीं, ज्ञान ही है । इसमें जो कुछ चारित्रमोह सम्बन्धी विकार है, उसका स्वामी ज्ञानी नहीं बनता; इसी कारण ज्ञानीके बंध नहीं है। विकार बन्धरूप है, वह बन्धकी पद्धतिमें है, ज्ञान की पद्धतिमें