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समयसार तस्य धर्मश्रद्धानमस्तीति चेत्--
सद्दहदि य पत्तियदि य रोचेदि य तह पुणा य फासेदि । धम्म भोगणिमित्तं ण दु सो कम्मक्खयणिमित्तं ॥२७॥ कभी धर्मको श्रद्धा, प्रतीति रुचि वा झुकाव भी करता।
वह सब भोगनिमित्त हि, पर कर्मक्षय निमित्त नहीं ॥२७५।। श्रद्दधाति च प्रत्येति च रोचयति च तथा पुनश्च स्पुशति । धर्म भोगनिमित्तं न तु स कर्मक्षयनिमित्तं ।
अभव्यो हि नित्यकर्मकर्मफलचेतनारूपं वस्तु श्रद्धत्ते, नित्यज्ञानचेतनामात्रं न तु श्रद्धत्ते नित्यमेव भेदविज्ञानानहत्वात् । ततः स कर्ममोक्षनिमित्तं ज्ञानमा भूतार्थं धर्म न श्रद्धत्ते । भोगनिमित्तं शुभकर्गमात्रमभूतार्थमेव पादने ! तत एकाही प्रभुजाधानद्धानात्यगनरोचनस्पर्शनरुपरितनदेयकभोगमात्रमास्कंदेन्न पुनः कदाचनापि विमुच्यते, ततोऽस्य भूतार्थधर्मश्रद्धा
नामसंज्ञ-य, तह, पुणो, धम्म, भौगणिभित्त, ण, दु, त, कम्मवस्त्रयणिमित्त । धातुसंज्ञ-श्रत् दह धारणे, पति इ गतौ, रोय अभिलाषे श्रद्धायां च, फास स्पर्श । प्रातिपदिक च, तथा, पुनर्, धर्म, भोगनिमित्त, न, तु, तत्. कर्मक्षयनिमित्त । मूलधातु---श्रद डुधान धारणपोषणयोः जुहोत्यादि, प्रति इण गती अदादि, रच रोत्तने, स्पृश संस्पर्शने तुदादि । पदविवरण-सद्दहदि श्रद्दधाति पतियदि प्रत्येति रोचेदि रोचधर्मश्रद्धान भी मोक्षके लिये नहीं होता।
तथ्यप्रकाश-~~१- अभव्य जीव भोगके प्रयोजनसे पुण्यरूप धर्मको श्रद्धा करता है। २-प्रभव्यजीव गुद्ध ज्ञानमय धर्मको जानता ही नहीं है । ३-अभव्यजीव भेदविज्ञानको योग्यता न होनेसे ज्ञान चेतनारूप तत्वको श्रद्धा नहीं कर सकता । ४-ग्रभव्य सदा कर्मचेतना व कर्मफल चेतनारूप वस्तुको श्रद्धा करता है । ५- कर्ममोक्षके हेतुभूत ज्ञानमात्र भूतार्थधर्मकी श्रद्धा प्रभव्यको होना असंभव है । ६- अभव्य जीव अभूतार्थधर्मको श्रद्धा प्रतीति रुचिके बलसे नव ग्रेवेयक तक भी उत्पन्न हो सकता, किन्तु भूतार्थधर्मको श्रद्धा न होनेसे उसको कभी मुक्ति नहीं प्राप्त हो सकती। ७-- निश्चय चारित्र बिना कितना ही व्यवहारचारित्र हो उसको मुक्ति नहीं अत: अनिश्चय प्रतिषेधक है व्यवहार प्रतिषेध्य है।
सिद्धान्त–१- येवल सहज ज्ञानमात्र अन्तस्तत्त्वकी अभेदोपासनाके बलसे व्यक्त शुद्ध सिद्ध दशा प्राप्त होती है । २- शुभ अशुभ विकारके पादरसे संसार दशा प्राप्त होती है ।
दृष्टि- १-शुद्धभावनापेक्ष शुद्ध द्रव्याथिकनय (२४) । २- उपाधिसापेक्ष अशुद्ध द्रव्यार्थिकनय, अशुद्धनिश्चयनय (२४, ४७)।
प्रयोग- कर्मक्षयके हेतुभूत ज्ञानचेतनामात्र परमतत्वके श्रद्धान ज्ञान प्राचरणसे अपने
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