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________________ ४७१ ... - -. - "-" - -- बन्धाधिकार नाभावात् सोऽज्ञानीति प्रतिनियतः ।।२७४।। प्रथमा एक । ण न-अव्यय । कदि कराति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एक० । गुणं-द्वितीया एक० । असद्दहंतस्स अथद्दधानस्य-षष्ठी एकः । गाणं ज्ञान-प्रथमा एकावचन । तु-अध्यय ।। २७४ ।। प्रयोग----शुद्ध ज्ञानमय मोक्षके लिये शुद्ध ज्ञानमय अन्तस्तस्वका प्रात्मरूपसे श्रद्धान ज्ञान प्राचरण करना ।। २७४ ।। प्रश्न-उस अभव्यके धर्मका तो श्रद्धान होता है उसके कैसे निषेध किया जा रहा है ? उत्तर- [सः] वह अभव्य जीव [भोगनिमित्त] भोगके निमित्तरूप [धर्म] धर्मको [श्रद्दधाति च] श्रद्धान करता है [प्रत्येति च प्रतीति करता है [रोचति च] रुचि करता है पुनश्च] और स्पृिशति] स्पर्शता है [तु] परन्तु [कर्मक्षयनिमित्त'] कर्मक्षय होनेका निमि. तरूप धर्मका [न] श्रद्धान प्रादि नहीं करता । तात्पर्य--सहज ज्ञानस्वभावका परिचय नहीं होनेसे अभव्य ज्ञानस्वभावरूप धर्मकी श्रद्धा नहीं कर पाता। टीकार्थ-प्रभव्य जीव नित्य ही कर्म और कर्मफलचेतनारूप वस्तुको श्रद्धा करता है, परन्तु नित्य ज्ञानचेतनामात्र वस्तुका श्रद्धान नहीं करता, क्योंकि अभव्य जोव नित्य ही स्व. परके भेदज्ञान के योग्य नहीं है । इस कारण वह अभव्य कर्मक्षयके निमित्तभूत ज्ञानमात्र भूतार्थ धर्मको श्रद्धान नहीं करता, परंतु भोगके निमित्तभूत शुभ कर्ममात्र असत्यार्थ धर्मको ही श्रद्धान करता है । इस कारण यह प्रभव्य अभूतार्थ धर्मका श्रद्धान, प्रतीति, रुचि, स्पर्शनके द्वारा ऊपरके ग्रैवेयक तकके भोगमात्रोंको पाता है, परन्तु कर्मसे कभी नहीं छूटता । इसलिये इसके सत्यार्थ धर्मके श्रद्धानका प्रभाव होनेसे सच्चा श्रद्धान भी नहीं है। ऐसा होनेपर निश्ववनयके मिद्धान्तमें व्यवहारनयका निषेध युक्त ही है। भावार्थ---प्रभव्य जीव कर्मचेतना व कर्मफलचेतनाको जानता है, परन्तु ज्ञानचेतनाको नहीं जानता, क्योंकि प्रभव्यके भेदज्ञान होनेकी योग्यता नहीं है, इस कारण इसके शुद्ध प्रात्मीयधर्मका श्रद्धान नहीं है । यह तो शुभ कर्मको हो धर्म समझकर श्रद्धान करता है सो मंद कषाय सहित यदि द्रव्यमहाव्रत पालन कर ले तो उसका फल वेयक तकके भोग पाता है, परन्तु कर्मका क्षय नहीं होता। इस कारण इसके सत्यार्थ धर्मका भी श्रद्धान नहीं कहा जा सकता, इसीसे निश्चयनयके सिद्धान्त में व्यवहारलय का निषेध है। प्रसंगविवरण-मनन्तरपूर्व गाथामें अभव्य के श्रुताध्ययनको अगुणकारी बताया गया था । अब इस गाथामें बताया है कि अभव्यके जैसा भी धर्मश्रद्धान संभव है वह पुण्यल्प
SR No.090405
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherBharat Varshiya Varni Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1995
Total Pages723
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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