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समयसार स किल गुणः श्रुताध्ययनस्य यद्विविक्तवस्तुभूतज्ञानमयात्मज्ञानं तच्च विविक्तवस्तुभूतं ज्ञानमश्रद्दधानस्यामव्यस्प श्रुताध्ययनेन न विधातुं शक्येत सतस्तस्य तद्गुणाभावः, ततश्च ज्ञानश्रद्धाः । द्वितीया एक० । असहहतो अश्रदधानः-प्रथमा एका० । अभवियसत्तो अभव्यसत्व:-प्रथमा एक० । दुतुअव्यय । जो य:-प्रथमा एक० । अधीरज अधीयीत-लिङ विधौ अन्य पुरुष एक० किया। पाठो पाठःपढ़ता हुमा भी शास्त्र पढ़नेके गुणके प्रभावसे ज्ञानी नहीं होता। शास्त्र पढ़नेका यह गुण है। कि भिन्न वस्तुभूत ज्ञानमय आत्माका ज्ञान हो । सो उस भिन्न वस्तुभूत ज्ञानको नहीं श्रद्धान। करने वाले अभव्यके शास्त्रके पढ़नेसे विविक्त वस्तुभूत ज्ञानमय प्रात्मज्ञान प्राप्त किया जाना । शक्य नहीं। इसी कारण उसके शास्त्र पढ़नेका जो भिन्न प्रात्माका जानना गुण है, वह नहीं । है और इस कारण वह नहीं है और इस कारण सच्चे ज्ञान श्रद्धानके प्रभावसे वह अभव्य प्रशानी ही है यह निश्चित है । भावार्थ-प्रभव्य जीव ग्यारह अंग भी पढ़ ले तो भी उसके शुद्ध प्रात्माका ज्ञान श्रद्धान नहीं होता इस कारण उसके शास्त्रको पठनसे गुश नहीं हुआ। इसी कारण वह अज्ञानी ही है।
प्रसंगविवरण-अनन्तरपूर्व माथामें बताया गया था कि व्यवहारचारित्रको पालता। हुप्रा भी अभव्य अज्ञानी व मिथ्यादृष्टि ही है। अब इस गाथामें उसीके सम्बन्धमें बताया है कि प्रभव्यका एकादश अंगका अध्ययन भी गुणकारी नहीं है।
तथ्यप्रकाश----१-अभध्य जीवको मोक्षका यथार्थ श्रद्धान नहीं होता। २-देहादि अन्य सर्वपरिमुक्त आत्माकी केवल शुद्ध ज्ञानमय स्थितिको मोक्ष कहते हैं। -प्रभव्य शुद्धज्ञानमय प्रात्मज्ञानसे शून्य होनेके कारण न तो मोक्षको श्रद्धा कर पाता है और न ज्ञानको श्रद्धा कर पाता है ! (४) श्रुत शास्त्र भागमके अध्ययनका फल शुद्ध ज्ञानस्वरूपको श्रद्धा है। (५) शुद्ध ज्ञानस्वरूपकी श्रद्धा न हो पानेके कारण एकादशांग श्रुतका भी अध्ययन प्रभव्यके लिये गुणकारी नहीं हो पाता । (६) प्रभव्यके शुद्ध ज्ञानमय प्रात्माका न तो ज्ञान है और न श्रद्धाग है, इस कारण प्रभव्य अज्ञानी मिथ्याष्टि ही है। (७) अभब्यके दर्शन मोहनीयका उपशम क्षय क्षयोपशम न होनेसे वह मिथ्यादृष्टि ही रहेगा।
सिद्धान्त-(१) प्रभव्य जीव विकारभावोंमें ही पात्मत्वका श्रद्धान बनाये रहनेके कारण सदा अशुद्ध ही रहता है । (२) मन, वचन, कायको क्रियायें निश्चयचारित्रका हेतुभूत नहीं हैं। फिर भी उन्हें चारित्र कहना व्यवहार है।
दृष्टि--१- अशुद्धनिश्चयनय (४७) । २- एकजात्याधारे अन्यजात्याधेयोपचारक व्यवहार (:४२)।