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बन्धाधिकार
४६६ तस्यकादशोगज्ञानमस्ति ? इति चेद- . .
मोक्खं असदहतो अभवियसत्तो दु जो अधीएज्ज । पाठो ण करेदि गुणं असदहंतस्स णाणं तु ॥२७४॥
मुक्तिका अश्रद्धानी, अभव्य प्राणी पढ़े श्रुताङ्गोंको।
पढ़ना गुण नहि करता, क्योंकि उसे ज्ञानभक्ति नहीं ॥२७४॥ मोक्षमश्रद्धानो भव्यसत्त्वस्तु योऽधीथीन । पाठो न करोति गुणमश्रधानन्य ज्ञानं तु ॥ २७४ ।।
मोक्षं हि न तावदभव्यः श्रद्धत्ते शुद्धज्ञान गयात्मज्ञानशून्यत्वात् ततो ज्ञानमपि नासो श्रद्धले, ज्ञानमश्रधानश्चाचाराद्य कादशांगं श्रुतमधीयानोऽपि श्रुताध्ययनगुणाभावान ज्ञानो स्यात्
नामसंज-- मोक्ख, असहत, अभवियसत्त, दु, ज, पाठ, ण, गुण, असदहत, णाण, तु । धातुसंज्ञअधि इ अध्ययने, कर करणे । प्रातिपदिक -मोक्ष, अश्रद्दधान, अभव्यमत्व, तु, यत्, पाठ, न, गुण, अश्रदृधान, ज्ञान, तु । मूलधातु अधि इछ, अध्ययने अदादि, डकुत्र करणे । पदविवरण-- मोक्खं मोक्षंभूत श्रद्धान अभयके नहीं हो पाता । ६- अभव्यके सभ्यवत्वघातक मिश्यात्वादि सात प्रकृ. तियोंका उपशम, क्षय या क्षयोपशम न होनेके कारण शुद्धात्मत्वको उपादेयताका श्रद्धान नहीं होता, अतः प्रभव्य मिथ्यादृष्टि ही रहता है।
सिद्धान्त-(१) प्रत समिति गप्ति आदिमें चारित्रपना कहना व्यवहार है। दृष्टि--१- एकजात्याधारे अन्यजात्याधेयोपचारक व्यवहार (१४२) ।
प्रयोग-निश्चयचारित्रके हेतुभूत शुद्धात्मत्वका श्रद्धान ज्ञान कर सहजात्मस्वरूपके अनुरूप ज्ञानवृत्तिका सहज पौरुष करना ॥२७३।।
__ प्रश्न-प्रभव्य जीवके सो ग्यारह अंग तकका भी ज्ञान हो जाता, फिर मोक्षमार्गी क्यों नहीं है ? उत्तर- [मोक्षं प्रश्रद्दधानः] मोक्ष तत्त्वकी श्रद्धा नहीं करने वाला [यः अभव्यसत्त्वः] जो अभव्य जीव है वह [अधीयोत तु] शास्त्र तो पढ़ता है [तु] परन्तु [ज्ञानं अश्रद्दधानस्य] ज्ञानस्वभावकी श्रद्धा नहीं करने वाले अभव्यका पाठः] शास्त्रपठन [गुणं न करोति] गुण नहीं करता।
तात्पयं-- अविकार सहज ज्ञानस्वरूपमें अपनी श्रद्धा न होनेसे अभन्यका ज्ञान भी गुणकारी नहीं है।
टीकार्थ-प्रथम तो अभव्य जीव निश्चयतः शुद्ध ज्ञानमय प्रात्माके ज्ञानसे शून्य होने से मोक्षका हो श्रद्धान नहीं करता इस कारण अभव्य जीव ज्ञानकी भो श्रद्धा नहीं करता । और ज्ञानका श्रद्धानन करने वाला अभव्य पाचारांगको प्रादि लेकर ग्यारह अंगरूप श्रुतको