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________________ ४६८ समयसार कथमभव्येनाश्रीयते व्यवहारनयः ? इति चेस्--- बदसमिदीगुत्तीयो सीलतवं जिणावरहि षण्णत्तं । कुब्बतोवि अभब्यो अण्णाणी मिच्छदिट्टी दु॥२७३॥ जिनघर के बतलाये, प्रत समिति पुति तथा शोल तपको । यह प्रभव्य करता भी, अज्ञानी मूदृष्टी है ॥ २७३ ॥ प्रतसमिति गुप्तयः शीलतपो जिनवरैः प्राप्त । कुर्वनप्यभापोलानी मिथ्यादृष्टिस्तु ॥ २७३ ।। शीलतपःपरिपूर्ण त्रिगुप्तिपंचसमितिपरिकलितमाहिंसादिपंचमहानतरूपं व्यवहारचारिप्रमभव्योऽपि कुर्यात् तथापि स निश्चारित्रोऽज्ञानी मिथ्यादृष्टिरेव निश्चयचारित्रहेतुभूतज्ञान. श्रद्धानशून्यत्वात् ।।२७३।। ___ नामसंझ--वदसमिदीगुत्ति, सीलतव, जिणवर, पण्णत, कुव्वंत, वि, अभब्ब, अण्णाणि, मिच्छदिदि, दु। धातुसंज्ञ-कुब्ध करणे। प्रातिपदिक –अतसमितिगुप्त, शीलतपस्, जिनवर, प्रज्ञप्त, कुर्वन्त, अपि, अभय, अज्ञानिन्, मिथ्यादृष्टि, तु । भूलशास्तु- डुकृञ् करणे। पदविवरण- बदसमिदीगुत्तीओ अतसमितिगुप्तयः-प्रथमा बहु० | सीलतवं शीलतपः-प्रथमा एक० । जिणवरेहिं जिनवरैः-तृतीया बहु० । पण्णस्तं प्रज्ञप्त-प्रथमा एक० । कुच्वंतो कुर्वन्-प्रथमा एक० । वि अपि-अव्यय । अभन्यो अभव्यः-प्रथमर एक० । अण्णाणी अज्ञानी-प्रथमा एक० । मिच्छदिद्धि मिथ्यादृष्टि:-प्रथमा एक० । दुतु-अव्यय ।। २७३ ।।। मिथ्यादृष्टि ही है, क्योंकि उसके निश्चयचारित्रका कारणस्वरूप ज्ञान और श्रद्धान नहीं है। भावार्थ-अभव्य जीव महाप्रत समिति गुप्ति रूप व्यवहारचारित्रको पाले तो भी वह निश्चय सम्यग्ज्ञान श्रद्धानके बिना सम्यकचारित्र नाम नहीं पाता और अज्ञानी मिथ्यादृष्टि ही रहता है । प्रसंगबिवरण-अनन्तरपूर्व गाथामें निश्चयनयको उपयोगिता दिखाकर समस्त पर द्रध्याश्रित व्यवहार प्रतिषिद्ध कर दर्शाया गया था कि पराश्रित व्यवहारका तो अभव्य भी माश्रय करते हैं बड़े दुर्धर तप आदि करते हैं, किन्तु उनका मोक्ष नहीं होता । अब इस गाथा में उसी व्यवहारनयका प्रभव्यके द्वारा पाश्रय किया जानेकी रीति बताई गई है । तथ्यप्रकाश-१-शील व तपश्चरणसे परिपूर्ण, तीन गुप्ति व पांच समितिसे युक्त पहिंसादि पञ्च महाव्रत व्यवहारचारित्र है । २- प्रभव्य भी मंद मिथ्यात्व व मंदकषायके व्यवहारचारित्रका पालन करता है । ३- व्यवहारचारित्रको पालता हुमा भी प्रभव्य निश्चयचारित्र ही है, क्योंकि उसके निश्चयचारित्र हो ही नहीं सकता । ४-व्यवहारचारित्रको पालता हुप्रा भी अभब्य अज्ञानी ही है, क्योंकि निश्चयचारित्रका हेतुभूत ज्ञान वहां नहीं है। ५- क्ष्यबहारचारित्रको पालता हुमा भी प्रभव्य मिथ्यादृष्टि ही है, क्योंकि निश्चयचारित्रका हेतु
SR No.090405
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherBharat Varshiya Varni Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1995
Total Pages723
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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