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पूर्व रंग कथमपि समुपात्तत्रित्वमप्यकताया अपतितमिदमात्मज्योतिरुद्गच्दच्छम् ।। सततमनुभवामोऽनंतचतन्यचिह्न न खलु न खलु यस्मादन्यथा साध्यसिद्धिः ।।२०।।१७-१।।
ननु ज्ञानतादात्म्यादात्मा ज्ञान नित्यमुपास्त एव कुतस्तदुपास्यत्वेनानुशास्यत इति चेत्तन, यतो न खल्वात्मा झानतादात्म्येषि क्षणमपि ज्ञानमुपास्ते स्वयंबुद्ध-बोधितबुद्धत्वकारणपूर्वकत्वेन ज्ञानस्योत्पत्तेः । तहि तत्कारणात्यूर्वमज्ञान एवात्मा, नित्यमेवाप्रतिबुद्धत्वादेवमेतत् । तहि कियंतं कालमयमप्रतिबुद्धो भवतीत्यभिधीयतां-- ततः हेत्वर्थ पंचम्यां तस्-अव्यय । तं-द्वितीया एक० , अनुचरति-अनु-घरति-अन्य पुरुष एक० क्रिया। पुन:-अव्यय । अर्थाथिक:-प्रथमा एक कर्तृ विशेषण । प्रयत्नेन-तृतीया एकः । एवं अध्यय । जीवराजःप्रथमा एक० कर्मवाच्यमें कर्म । ज्ञातव्य:-प्रथमा एक कृदन्त किया। तथा च-अव्यय । श्रदधातव्यःप्रथमा ए० कृदन्त क्रिया । अनुचरितव्य:-प्रथमा एक० कृदन्त क्रिया। स:-प्रथमा एक० कर्मवाच्य में कर्म । तु-अव्यय । मोक्षकामेन-तृतीया एक०, कर्मवाच्य में कर्ता या कर्तृ विशेषण । (२) प्रात्मपरिचयके बाद आत्माका अनुभवपूर्वक श्रद्धान होता है। (३) सानुभव' श्रद्धानके साथ हो ज्ञान सम्यग्ज्ञान हो जाता है । (४) प्रात्माका श्रद्धान ज्ञान होनेपर प्रात्माके अनुरूप माचरण होता है । (५) आत्माके श्रद्धान, ज्ञान, प्राचरणसे सहजपरमात्मतत्त्वकी सिद्धि होती है । (६) प्रात्माके श्रद्धान, ज्ञान, प्राचरणके न होनेपर सहजपरमात्मतत्त्व. द्धि कभी नहीं
होतो।
सिद्धान्त--(१) शुद्धात्मा निर्विकार स्वसंवेदनज्ञानसे ज्ञातव्य है । (२) सम्यग्दर्शन, सम्यज्ञान, सम्यक्चारित्रकी एकता मोक्षमार्ग है।
दृष्टि--१-शुद्धनय (४६)। २- एवंभूतनय (४३) ।
प्रयोग-आत्माको व्यवहारनयसे (मुरणादिपरिचयसे) पहिचानकर सहजज्ञानानन्दस्वभाव शुद्ध मन्तस्तत्वका श्रद्धान कर निविकल्प स्वसंवेदन समाधिसे निरन्तर अनुभव करना ॥१७-१८॥
प्रश्न-प्रात्मा तो ज्ञानसे तादात्म्यस्वरूप है, जुदा नहीं है, इसलिये अात्मा ज्ञानका नित्य सेवन करता ही है, फिर ज्ञानकी ही उपासना करनेकी शिक्षा क्यों दी जाती है ? समाधान--यह कहना ठीक नहीं, यद्यपि प्रात्मा ज्ञानसे तादात्म्यरूप है तो भी यह एक क्षणमात्र भी ज्ञान की उपासना नहीं करता । इसके ज्ञानको उत्पत्ति स्वयं ही जाननेसे अथवा दूसरेके बतलानेसे होती है; क्योंकि या तो काललब्धि प्राये तब प्राप ही जान लेता है या कोई जनावे तब जान सकेगा । प्रश्न-यदि इस तरह है तो जाननेके कारण के पहले आत्मा अज्ञानी ही है, क्योंकि सदा ही इसके अप्रतिबुद्धपना है ? उत्तर--यह बात ऐसे ही है कि वह प्रशानी ही