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________________ समयसार श्रद्धानमुत्प्लबते तदा समस्तभावान्तरविवेकेन निःशङ्कमेव स्यातुं शक्यत्वादात्मानुचरणमुत्प्लवमानमात्मानं साधयतीति साध्यसिद्धेस्तथोपपत्तिः । यदात्वाबालगोपालमेव सकलकालमेव स्वयमेवानुभूयमानेपि अगवत्यनुभूत्यात्मन्यात्मन्यनापिबंधवशात् परैः सममेकत्वाध्यवसायेन विमूहस्यायमहमनुभूतिरित्यात्मज्ञानं नोप्लवते तदभावादज्ञातखरशृङ्गश्रद्धानसमानत्वाच्छ्यानमपि नोत्प्लवते तदा समस्तभावांतराविवेकेत निःशङ्कमेव स्थातुमशक्यत्वादात्मानुचाननुत्प्लवमानं नात्मानं साधयतीति साध्यसिद्धरत्यथानपपत्तिः । हि जीवराज, तथा, एब, च, पुनर, तत च, एव, तु, मोक्षकाम । मूलधातु-श्रत्-डधान धारणपोषगयोः। अनु-चर गत्यर्थः । ज्ञा अवबोधने । मुच प्रमोचने मोदे च । कमु कान्ती, कान्तिरिच्छा । पदविवरण-यथा-अव्यय । नाम-प्रथमा एक० । क:-प्र० एक० । अपि-अव्यय । पुरुषः-प्रथमा एक० कर्ताकारक । राजन-सीमा एक हजासमीकी क्रिया, श्रद्धाति-थत् दधाति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष ए०। समय समस्त अन्य भावोंसे भेद न होनेके कारण निःशंक प्रात्मामें ही ठहरनेको असामर्थ्य से मात्माका अाचरण न होनाझप परिणमन आत्माको नहीं साध सकता। इस तरह साध्य प्रास्माकी सिद्धिकी अन्यथानुपपत्ति प्रसिद्ध है। भावार्थ-साध्य अात्माको सिद्धि दर्शनज्ञानचारित्रसे ही है, अन्य प्रकार नहीं है। क्योंकि पहले तो मात्माको जाने कि "यह मैं हूं" उसके अनन्तर , इसकी प्रतीतिरूप श्रद्धान होता है । बिना जाने श्रद्धान किसका हो ? फिर समस्त अन्य भावोंसे भेद करके अपने में स्थिर होवे ऐसे प्रात्माकी सिद्धि है । जब जानेगा नहीं तब श्रद्धान भी नहीं हो सकेगा । तब स्थिरता किसमें कर सकता है ? इसलिये दूसरी तरह सिद्धि नहीं है, ऐसा निश्चय है । अब इसीको दृढ़ करनेके लिये कलशरूप काव्य कहते हैं-"कथमपि" इत्यादि । पर्थ-किसी भी प्रकार तीनपनेको प्राक्ष होनेपर भी एकरूपतासे च्युत न हुई, निर्मल उदयको प्राप्त हुई, अनंत चैतन्य चिह्न वाली इस पात्मज्योतिको हम निरन्तर अनुभवते हैं, क्योंकि अन्य प्रकारसे साध्य पातमाको सिद्धि कभी नहीं होती किसी तरह नहीं होती। भावार्थ-- आचार्य कहते हैं कि जिसके किसी तरह पर्यायदृष्टिसे तीनपना प्राप्त है तो भी शुद्धद्रव्यदृष्टिसे एकरूपता नहीं छूटी है तथा अनन्त चैतन्यस्वरूप निर्मल उदयको प्राप्त है ऐसी प्रात्मज्योतिका हम निरन्तर अनुभव करते हैं । प्रसंगविवरण-अनन्तर पूर्व गाथामें कहा गया था कि व्यवहारसे दर्शन, ज्ञान, चारित्र सेवनीय है, निश्चयसे प्रात्मा सेवनीय है उसी कथनका प्रेक्टिकल रूपमें यहाँ विवरण किया गया है। तथ्यप्रकाश-(१) मोक्षमार्ग पाने के लिये प्रथम प्रात्माका कुछ परिचय प्रावश्यक है। काewanaR -74 -
SR No.090405
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherBharat Varshiya Varni Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1995
Total Pages723
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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