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________________ समयसार कम्मे गोकम्ममि य अहमिदि अहकं च कम्म णोकम्मं । जा एसा खलु बुद्धी अप्पडिबुद्धो हवदि ताव ॥१६॥ विधि विभाव देहोंमें, 'यह मैं मैं यह' की एकता जब तक । जिसको मतिमें रहती, अज्ञानी जीव है तब तक ॥१६॥ कर्मणि नोकर्मणि चाहमित्यहकं च कर्म नोकर्म । याजदेषा वलु बुद्धिर पनिटो गति जावत् । या स्पर्शरसगंधवर्णादिभाषेषु पृथु बुध्नोदराद्याकारपरिणतपुद्गलस्कंधेषु घटोयमिति घटे व स्पर्शरसगंधवर्णादिभावाः पृथबुध्नोदराद्याकारपरिणतपुद्गलस्कंधाश्चामी इति वस्त्वभेदेनानुभूतिस्तया कर्मणि मोहादिष्वंतरंगेषु, नोकमरिण शरीरादिषु बहिरंगेषु चातमतिरस्कारिषु नामसंज्ञ कम्भ, कोकम्म, य, अम्ह, इदि, अम्ह, च, कम्म, णोकम्म, ज, एत, खलु, बुद्धि, अप्पडिबुद्ध, ताव । धातुसंज्ञ बुझ अवगमने, हो सत्तायां । प्रकृतिशब्द--- कर्मन्, नोकर्मन्, च, अस्मत्, इति, है। तो फिर यह प्रात्मा कितने समय तक अप्रतिबुद्ध (अज्ञानी) रहता है ? उसके स्वयं एकरूप गाथासूत्र कहते हैं--- यावत्] जब तक इस प्रात्माके [कर्मरिण] ज्ञानावरणादि द्रव्यकर्म व भावकर्ममें [धा] और [नोकर्मरिण] शरीर आदि नोकर्ममें [अहं कर्म नोकर्म] मैं कर्म नोकर्म हूं [च इति ग्रहक और ये कर्म नोकर्म मैं हूँ [एषा खलु] ऐसी निश्चयसे [मतिः] बुद्धि है [तायत्] तब तक [अप्रतिबुद्धः] यह प्रात्मा अप्रतिबुद्ध याने अज्ञानी [भवति] है ।। तात्पर्य-विकार व शरीरमें प्रात्मत्वका अनुभवन होना अज्ञान है। टोकार्थ-- जैसे स्पर्श, रस, गंध और वर्ण आदि भावोंमें चौड़ा नीचे अवगाहरूप उदर ग्रादिके प्राकार परिणत हुए पुद्गलके स्कंधोंमें यह घट है ऐसा और घटमें स्पर्श, रस, गंध पौर वर्णादि भाव हैं तथा पृथुबुध्नोदर प्रादिके प्राकार परिणत पुद्गल स्कंध हैं, ऐसा वस्तुके अभेदसे अनुभव है, उसी तरह कर्म--मोह आदि अंतरंग परिणाम और नोकर्म-शरोर प्रादि वाह्य वस्तुयें सब पुद्गल के परिणाम हैं जो कि प्रातमाके तिरस्कार करने वाले हैं, उनमें ये कर्म नोकर्म 'मैं हूँ' तथा मोहादिक अंतरंग और शरीरादि बहिरंग कर्म आत्माके तिरस्कार करने वाले पुद्गल परिणाम मुझ आत्मामें हैं, इस प्रकार वस्तुके प्रभेदसे जब तक अनुभूति है तब तक प्रात्मा अप्रतिबुद्ध है, अज्ञानी है। और जब किसी समय जैसे रूपी दर्पणके प्राकार को प्रतिभास वारने वाली स्वच्छता ही है तया उष्णता और ज्वाला अग्निकी है, उसी तरह प्ररूपी प्रात्माकी अपने परके जानने वाली ज्ञातृता (ज्ञातापना) ही है और कर्म नोकर्म पुद्गल के ही हैं, ऐसी अपने प्राप ही अथवा दूसरेके उपदेशसे भेदविज्ञानमूलक अनुभूति उत्पन्न हो
SR No.090405
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherBharat Varshiya Varni Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1995
Total Pages723
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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