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________________ पुण्यपापाधिकार २८७ ज्ञानस्य भवनं चारित्रं । तदेवं सम्यग्दर्शनशानचारित्राण्येकमेव ज्ञानस्य भवनमायातम् । ततो ज्ञान मेव परमार्थमोक्षहेतुः ।।१५५।। डुधात् धारणपोषणयोः जुहोत्यादि, सम्-अंचु विशेषणे चुरादि, अधि-गम्ल गतौ, ज्ञा अवबोधने, रन्ज रागे' गरि-हज हरणे, चर गत्यर्थ: भ्वादि, पथे गतौ भ्वादि, पथि-गती चुरादि । पदविवरण-जीवादीसद्दणं जीवादिश्रद्धानं-प्रथमा एकवचन | सम्मत्तं सम्यक्त्वं-प्र० ए०। तेसि तेषा-षष्ठी बहु । अधिगमो अधिगमः-प्रथमा एक० । णाणं ज्ञानं-प्र० ए० रायादीपरिहरणं रागादिपरिहरण-प्र० ए० | चरणं चरण-प्र. एक० । एसो एष:-प्र० ए० । दुतु-अव्यय । मोक्खपहो मोक्षपथ:-प्रथमा एकवचन ॥१५५॥ सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान सम्म चारित्र बताया गया है वह ज्ञानका हो उस प्रकारसे होना है। ३-किन्हीं भी लक्षणोंसे सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान सम्यक्चारित्रका लक्षण किया जावे वह सब ज्ञानका उस प्रकारसे होना विदित होगा । ४-जीवादिक तत्त्वोंका यथार्थ श्रद्धान होना सम्यग्दर्शन है । ५- भूतार्थ से जाने गये जीव, प्रजीव, पुण्य, पाप; यास्रव, संवर, निर्जरा, बंध व मोक्ष सम्यमत्व है याने सम्यक्त्व के कारण हैं । ६- भूतार्थाभिगत पदार्थोंका शुद्धात्मासे भिन्न रूपमें सम्यक् अवलोकन होना सम्यग्दर्शन है। - ज्ञानका जीवादिश्रद्धान स्वभावसे होना सम्यग्दर्शन है । ८- जीवादिक पदार्थोका संशय, विपर्यय अनध्यवसायसे रहित यथार्थ ज्ञान होना सम्यग्ज्ञान है । -जीवादिक नाना पदार्थोका शुद्धात्मतत्त्वसे भिन्न रूपमें निश्चय होना सम्यग्ज्ञान है। १०-जीवादिज्ञानस्वभावसे ज्ञानका परिणमना सम्यग्ज्ञान है। ११--जीवादिपदार्थविषयक रागादिका परिहार होना सम्यक्चारित्र है । १२- जीवादिक नाना पदार्थोको शुद्धा. स्मासे भिन्नरूपमें निश्चय करके रागादिविकल्परहितरूप रूपसे निजशुद्धात्मामें अवस्थान होन: सम्यक्चारित्र है । १३-रागादिपरिहरणस्वभावसे ज्ञानका होना सम्यक्चारित्र है। सिद्धान्त-१- जीवादिक पदार्थोंका श्रद्धान सम्यग्दर्शन है यह उपधार कथन है । २- जीवादिश्रद्धान स्वभावसे ज्ञानका (ज्ञानमय प्रात्माका) परिणमना सम्यग्दर्शन है यह निश्चयकथन है । ३-- जीवादिक पदार्थोका ज्ञान होना सम्यग्ज्ञान है, यह उपचार कथन है । ४-- जानका जीवादि ज्ञानस्वभावसे परिणमना सम्यग्ज्ञान है यह निश्चयकथन है । ५-- बाह्यपदार्थोका रा छोड़ना, षटकायके जीवोंकी रक्षा करना प्रादि उपचार कथन है । ६. रागादिपरिहरणस्वभावसे ज्ञानका परिणमना सभ्याचारित्र है, यह निश्चयकथन है ।। दृष्टि-१--अपरिपूर्ण उपचरित स्वभावव्यवहार (१०५५) । २..शुद्धनिश्चयनय (४६) । ३-- अपरिपूर्ण उपचरित स्वभावव्यवहार (१०५७)। ४- शुद्धनिश्चयनय (४६), ५.-अपरिपूर्ण उपचरित स्वभावव्यवहार (१०५५) । ६--शुद्धनिश्चयनय (४६) ।
SR No.090405
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherBharat Varshiya Varni Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1995
Total Pages723
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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