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निर्जराधिकार कुतोऽनागतमुदयं ज्ञानी नाकक्षितीति चेत्--
जो वेददि वेदिजदि समए समए विणस्सदे उहयं । तं जाणगो दु णाणी उभयपि ण कंखइ कयावि ॥२१६॥
जो वेदक वैद्य उभय, समय समय विमष्ट हो जाता।
सोमानी ज्ञायक बन, न चाहता उमय भायोंको ॥२१६॥ यो वेदयते. वेद्यते समये समये विनश्यत्युभयं । तज्ज्ञायकस्तु ज्ञानी, उभयमपि न कांक्षति कदाचित् ।।२१६॥
___ज्ञानी हि तावद् ध्र वत्वात् स्वभावभावस्य टंकोत्कीर्णेकज्ञायकभावो नित्यो भवति, यो तु वेद्यवेदकभावौ तौ तूत्पन्न प्रध्वंसित्वाद्विभावभावानां क्षणिको भवतः । तत्र यो भावः कांक्ष्यमारणं वेधभावं वेदयते स याबद्भवति तावत्कांक्ष्यमाणो वेद्यो भावो विनश्यति । तस्मिन् विनष्टे वेदको भाव: कि वेदयते ? यदि कांक्ष्यमाणवेधभावपृष्ठभाविनमन्यं भावं वेदयते, तदा
नामसंश-ज, समय, समय, उहय, त, जाणग, दु, पाणि, उभय, पि, ण, कया, वि। धातुसंज्ञ-.. वेद वेदने, वि-नस्स नाशे, कख वांछायां । प्रातिपदिक-यत्, समय, समय, उभय, तत्, ज्ञायक, तु, ज्ञानिन्,
सिद्धान्त--(१) ज्ञानीके अपने सहजात्मस्वरूपकी भावनासे प्रकट हुए स्वतन्त्र मानन्द के विलासका अनुभव है । (२) स्वसम्वेदक ज्ञानी सुख-दुःखादि उपभोगका साक्षी ही है ।
दृष्टि--१- अनीश्वरनय (१८६) । २- प्रभोक्तृनय (१६२)।
प्रयोग-उपभोगविकल्पसे रहित शुद्ध ज्ञानस्वभावमात्र अपनेको अनुभव करके अपनेमें संतुष्ट रहनेका पौरुष करना ॥२१५।।
अब ज्ञानी अनागत कर्मोदय उपभोगको क्यों बांछा नहीं करता ? इसका विवरण करते हैं--[यः] जो विवयते] अनुभव करने वाला भाव है याने वेदकभाव है और जो [वेद्यते] अनुभव किया जाने योग्य भाव है अर्थात् वेद्यभाव है [उभयं] ये दोनों ही [समये समये] समय [विनश्यति] नष्ट हो जाते हैं। [तत्] सो [जानी] ज्ञानी [शायकः सु] दोनों भावोंका ज्ञायक हो रहता है [उभयमपि] इन दोनों ही भावोंको [कदापि] कभी भी [न कांक्षति] ज्ञानी नहीं चाहता।
तात्पर्य-वेदकभाव होनेपर वेद्यभाव नष्ट हो जाता है, बेद्यभाव होनेपर पूर्ववेदक भाव नष्ट हो जाता है सो वेधभाव कभी अनुभवा ही नहीं जा सकता यह जानकर ज्ञानी दोनोंका मात्र ज्ञाता ही रहता है।
टोकार्ष-वास्तवमें ज्ञानी तो अपने स्वभावभावके ध्र धत्वके कारण टंकोत्कीर्ण एक जायकस्वरूप नित्य है और जो वेदने वाला तथा वेदने योग्य ऐसे जो दो वेदक तथा वेद्यभाव