________________
संवसार
३४३ रागग्रामप्रलयकरणात्कर्मणां संवरेण । विभ्रत्तोषं परमममलालोकमम्लानमेकं ज्ञानं ज्ञाने नियतमुदितं शाश्वतोद्योतमेतत् ।।१३।। इति संवरो निष्क्रांतः ।। १६.०.१६२ ॥ इति श्रीमदमृतचंद्रसूरिविरचितायां समयसारख्याख्यायामात्मख्यातो
संवरप्ररूपकः पञ्चमोऽकः ॥५॥ वर्तमान लट् अन्य पुरुष एकवचन क्रिया । णिरोहो निरोधः-प्र० ए० । णोकम्मणिरोहेप नोकर्मनिरोधेनतृतीया एक० । य च-अव्यय । संसारणिरोहणं संसारनिरोधन-प्रथमा एकवचन । होइ भवति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एकवचन क्रिया ।। १६०-१९२॥ कर्मका प्रभाव होता है । (१०) कर्मका प्रभाव होनेपर शरीरका प्रभाव होता है । (११) शरीरका अभाव होनेपर संसारका प्रभाव होता है । (१२) भावानवका निरोध सम्बर है। (१३) संवर तस्व पानेपर सकलसंकट दूर हो जाते हैं ।
सिद्धान्त-(१) प्रात्माके शुद्ध भावसे शुद्ध परिगतिका सन्तान बनना स्वयंका कार्य है । (२) प्रात्माके शुद्ध भावके निमित्तसे पौद्गलिक कर्मोंका सम्बर होता है ।
दृष्टि-१- कारककारकिभेदक सद्भूतव्यवहार (७३) । २- शुद्धभावनापेक्ष शुद्ध द्रव्याथिकनय (२४ब)।
प्रयोग-प्रात्मा व कर्ममें याने आत्माके साथ विभाव द्रव्यकर्म शरीर व क्रियामें अभेदरूप अपनेको अनुभवना सर्व विडम्बनामोंका मूल जानकर स्वपरकत्वाध्यास दूर करने के लिये भेदविज्ञान करना और परभावसे उपेक्षा करके अपने ज्ञानस्वभावमें उपयुक्त होनेका पौरुष करना ॥ १६०-१६२ ।।
इस प्रकार सहजानन्दसप्तदशाङ्गी टीका श्रीमत्कुन्दकुन्दाचार्यविरचित समयसार तथा श्रीमद् अमृतचंद्रसूरिविरचित समयसारव्याख्या प्रात्मख्यातिका
संवरतत्त्वप्ररूपक पञ्चम अङ्क समाप्त हुप्रा ।