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________________ " - - - ३४२ समयसार द्यावत्पराच्च्युत्वा ज्ञान ज्ञाने प्रतिष्ठते ।।१३०।। भेदविज्ञानतः सिद्धाः सिद्धा ये किल केचन । अस्यवाभावतो बद्धा बद्धा ये किल केचन ॥१३१॥ भेदज्ञानोच्छलनकलनाच्छुद्ध तत्त्वोपलंभात् । एक । य च-अव्यय । जोगो योग:-प्रथमा एक० । य च-अव्यय । हेअभावे हेत्वभावे-सप्तमी एक। णियमा नियमात्-पंचमी एक० । जायद जायते-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एक० क्रिया । गाणिस्स ज्ञानिनःषष्ठी एक० । आसवणिरोहो आनवनिरोधः-प्र० ए० | आसबभावण आस्रवभावेन-तृतीया एक० । विणा बिना-अव्यय । जायइ जायते-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एक० क्रिया। कम्मस्स कर्मण:-षष्ठी एकः । वि अपि-अव्यय । णिरोहो निरोधः-प्रथमा एकवचन । कम्मरस कर्मणः-षष्ठी एक० । अभावेण अभावेनतृतीया एक० । य च-अव्यय । पोकम्माणं नोकर्मणां-पप्ठी बहु । पि अपि-अव्यय । जायइ जायते-- से बंधे हैं। भावार्थ---मात्मा और कमकी एकताके माननेसे ही संसारनिमित्तक कर्मबन्धन है। इस कारण कर्मबन्धका मूल भेदविज्ञानका प्रभाव ही है । जो बंधे हैं घे भेदविज्ञानके अभावसे बँधे हैं और जो सिद्ध हुए हैं वे इस भेदविज्ञानके होनेपर ही हुए हैं। इस कारण भेदविज्ञान ही मोक्षका मूल कारण है । अब संवरका अधिकार पूर्ण करते समय संदरके होनेसे होने वाली ज्ञानकी महिमा बताते हैं-भेदज्ञानो इत्यादि । अर्थ-भेदविज्ञान का प्रवर्तन करनेसे शुद्ध तत्त्वकी प्राप्ति हुई, उस शुद्ध तत्त्वको प्राप्तिसे रागके समूहका प्रलय हुमा, रागके समूहका प्रलय करनेसे कर्मोका सम्बर हुमा तथा कर्मोका सम्बर होनेसे परम संतोषको धारण करता हुमा निर्मल प्रकाशरूप रागादिकी कलुषतासे रहित एक नित्य उद्योतरूप यह ज्ञान निश्चल उदयको प्राप्त हुना है । इस प्रकार रंगभूमिमें सम्बरका स्वांग हुमा था उसको मानने जान लिया सो नृत्य कर वह रंगभूमिसे निकल गया । __ प्रसंगविवरस्य ...अनन्तरपूर्व गाथात्रिकल में किस प्रकारसे सम्बर होता है यह बताया गया था । अब इस गाथात्रिकलमें उस सम्वरके होनेका क्रम बताया गया है। तथ्यप्रकाश--(१) अात्मा और कर्म में एकत्वका अध्यास होनेसे जीव अपनेको मिथ्यात्व अज्ञान प्रविरति व योगरूप मानता है जिससे ये अध्यवसान होते हैं । (२) मध्यवसान होनेसे रागद्वेष मोहरूप प्रास्रवभाव होने हैं । (३) प्रास्रवभाव होनेसे कर्मबन्ध होता है । (४) बद्धकर्मविपाक शरीररचनाका कारण है । (५) शरीरसे संसार प्रकट होता है । (६) प्रात्मा और कर्मका भेदविज्ञान होनेसे शुद्ध चैतन्य मात्र प्रात्माको उपलब्धि होती है । (७) शुद्ध चैतन्यचमत्कारमात्र प्रात्माकी उपलब्धि होते ही अध्यवसानोंका प्रभाव होता है । (८) अध्यवसानोंका अभाव होनेसे प्रास्त्रवभावका प्रभाव होता है । (8) आस्रवभावका प्रभाव होनेपर
SR No.090405
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherBharat Varshiya Varni Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1995
Total Pages723
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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