________________
संबराधिकार
३४१ इत्येष संवरक्रमः ।। संपद्यते संवर एष साक्षात् शद्धात्मतत्वस्य किलोपलंभात् । स भेदविज्ञानत एव तस्मात्तभेदविज्ञानमतीव भाव्यं ।।१२६॥ भावयेभेदविज्ञानमिदमच्छिन्नधारया। तावच, नोकर्मन्, अपि, निरोध, नोकर्मनिरोध, च, संसारनिरोधन । मूलधातु-भण शब्दार्थः, भ्वादि, जनी प्रादुर्भावे दिवादि, भू सत्तायां। पद विवरण-तेसि तेषां-षष्ठी बहु । हेऊ हेतवः-प्रथमा बहु० । भणिया भणितः-प्रथमा बहु०॥ अज्झवसाणाणि अध्यवसानानि-प्रथमा वहु । सव्वदरिसीहि सर्वशिभि:-तृतीया बहु० । मिच्छत्तं मिथ्यात्व-प्रथमा एक० । अण्णाणं अज्ञान-प्र० एक० । अविरयभावो अविरतिभावः-प्र० है, कर्मका अभाव होनेपर नोकर्मका अभाव होता है और नोवर्मका प्रभाव होनेसे संसारका प्रभाव होता है । ऐसा यह संवरका अनुक्रम है ।
भावार्थ---जब तक प्रात्मा और कर्म में एकत्वकी मान्यता है, उनमें भेदविज्ञान नहीं तब तक मिथ्यास्व, अज्ञान, अविरति और योगरूप अध्यवसान इसके विद्यमान हैं, उनसे राग द्वेष-मोहरूप प्रास्रवभाव होता है, प्रास्रवभावसे कर्म बंधते हैं, कर्मसे नोकर्म याने शरीरादिक प्रेगट होते हैं और नोकर्मसे संसार है । लेकिन जिस समय प्रात्माको प्रात्मा और कर्मका भेदविज्ञान हो जाता है तब उसे शुद्ध प्रात्माको प्राप्ति होती है, उसके होनेसे मिथ्यात्वादि प्रध्यवसानका प्रभाव होता है, अध्यवसानका अभाव होनेसे राग-द्वेष-मोहरूप प्रास्त्रकका अभाव होता है, मानवके प्रभावसे कम नहीं बंधता, कर्मके प्रभावसे नोकर्म नहीं प्रगट होता और नोकमके अभावसे संसारका प्रभाव होता है । यही संवरका तरीका है।
अब संवरके कारणभूत भेदविज्ञानको भावनाका उपदेश करते हैं- संपद्यते इत्यादि । मर्थ-शुद्धात्मतत्त्वको प्राप्तिसे साक्षात् संवर होता हो है। शुद्धात्मतत्वकी प्राप्ति आत्मा और कर्मके भेदविज्ञानसे होती है इस कारण भेदविज्ञानको विशेष रूपसे भाना चाहिये ।।
अब कहते हैं कि भेदविज्ञान कब तक भाना चाहिये ? भावये इत्यादि । अर्थ-इस भेदविज्ञानको प्रखण्ड प्रवाहरूपसे तब तक भावे जब तक कि ज्ञान परभावोंसे छूटकर अपने ज्ञानस्वरूपमें ही प्रतिष्ठित नहीं हो जाता है। भावार्थ-ज्ञानका ज्ञानमें ठहरना दो प्रकारसे जानना । (१) मिथ्यात्वका अभाव होकर सम्यग्ज्ञान हो और उसके बाद मिथ्यात्व नहीं हो । (२) शुद्धोपयोगरूप होकर ज्ञान ज्ञानरूप ही ठहरे, अन्य विकाररूप नहीं परिणमे । सो दोनों ही प्रकारसे जब तक ज्ञान ज्ञानमें न ठहर जाय तब तक भेदविज्ञानकी निरंतर भावना रखनी चाहिये ।
अब भेदविज्ञानकी महिमा कहते हैं- भेद इत्यादि । अर्थ-निश्चयतः जो कोई सिद्ध हुए हैं वे इस भेदविज्ञानसे ही हुए हैं और जो कोई कर्मसे बँधे हैं वे इसो भेदविज्ञानके प्रभाव