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पुण्यापाधिकार स्थितमेकमेव परमं ज्ञानं विमुक्त स्वतः ॥११०।। मग्ना: कर्मन यावलम्बनपरा ज्ञानं न जानति ये, माना ज्ञाननयषिणोऽपि यदतिस्वच्छंदमंदोद्यमाः । विश्वस्योपरि ते तरंति सततं ज्ञानं भवतः स्वयं, ये कुर्वति न कर्म जातु न नशं याति प्रमादस्य च ।। १११।। भेदोन्मादं भ्रमरसभरान्नाटजिनवर, परिकथित, तत्, जीव, मिथ्या दृष्टि, इति, ज्ञातव्य, ज्ञान, प्रनिनिबद्ध, अज्ञान, जिनवर, परिकथित तद, उदय, जीव, अज्ञानिन्, ज्ञातव्य, चारित्रप्रतिनिवद, कषाय, जिनदर, परिकथित, तत्, उदय, जीव, अचारित्र, ज्ञातव्य । मूलधातु-प्रति-नि-धन पंधने, नरिथ पाने, शिक्षा, ज्ञा अक्बोधने । पदविवरण-सम्मत्तपद्धिणिबद्ध सम्यक्त्वप्रतिनिबद्ध-प्रथमा एक । मिच्छत्तं मिथ्यात्वं-प्रथमा ए० । जिनवरैः--तृतीया बहु० । परिकहियं परिकथित-प्रथमा एक० कृदन्त क्रिया । तस्स तस्य-षष्ठी एक० 1 उदयेण उदयेन-तृतीया एका० । जीवो जीव:-प्रथमा एकवचन । मिच्छादिट्टि मिथ्या दृष्टि:-प्रथमा एक० । इतिअव्यय । णायव्वो ज्ञातव्यः-प्रथमा एक० कृदन्त क्रिया। माणस्स झानस्य-षष्ठी एक० । पडिणिबद्ध प्रतिनिबद्धं-प्रथमा एक० कृदन्त । अण्णाणं अज्ञान-प्र० ए० | जिणवरेहि जिनवरैः-तृतीया बहू । परिकहियं किन्तु जो परमार्थभूत प्रात्मस्वरूपको यथार्थ तो जानते नहीं और सर्वथा एकातियोंके उपदेशसे अथवा स्वयमेव कुछ अंतरंगमें ज्ञान का स्वरूप मिथ्या कल्पना करके उसमें पक्षपात करते हैं और व्यवहारदर्शन, ज्ञान और चारित्रके भक्ति कृतिकर्म आदि क्रियाकांडको निरर्थक जान छोड देने वाले स्वच्छन्द मनवाले ज्ञाननयके पक्षपाती हैं वे भी संसार समुद्र में मग्न हैं, क्योंकि मावश्यक क्रियाको छोड़ स्वेच्छाचारी रहते हैं और स्वरूप में मंद उद्यमी रहते हैं । इस कारण जो पक्षपातका अभिप्राय छोड़कर निरंतर ज्ञानस्वरूपमें जब तक न रहा जाय तब तक अशुभकर्मको छोड़ स्वरूपके साधनरूप शुभ कर्मकांडमें प्रवर्तकर निरंतर ज्ञानरूप हुए कर्मकांडको छोड़ते हैं वे ही कर्मका नाश कर संसारसे निवृत्त होते हैं ।।
अब पुण्यपापाधिकारको सम्पूर्ण करते हुए प्राचार्य ज्ञानको महिमा बताते हैं---भेदोन्मादं इत्यादि । अर्थ---पी ली है मोहमदिरा जिसने ऐसे तथा भ्रमरसके भारसे शुभाशुभकर्म के भेदके उन्मादको नचाने (प्रकट करने वाले उस सभी कर्मको अपने प्रात्मबलसे मुलोन्मूल करके याने जड़से उखाड़ करके जिसने अज्ञानान्धकारको नष्ट कर दिया है, लीलामात्रसे विकसित परमकला (केवलज्ञान) के साथ क्रोडा प्रारम्भ की है, ऐसी यह ज्ञानज्योति अब वेगपूर्वक प्रकट होती है।
भावार्थ-ज्ञानज्योतिके प्रतिबंधक कर्मको जो कि शुभ अशुभ भेदरूप होकर नाच रहा था और ज्ञानको भुला देता था उस कर्मको भेदविज्ञानमयी व अभेदअन्तस्तत्त्वस्पर्शी अपनी शक्तिसे नष्ट करके प्राप अपने सम्पूर्ण रूप सहित यह ज्ञानज्योति प्रकट हुई याने यथार्थ ज्ञानके उपयोगमें अब दो भेष नहीं रहे । क्योंकि कर्म सामान्य रूपसे एक ही है उसने शुभअशुभ दो भेदरूप स्वांग बनाकर रंगभूमिमें प्रवेश किया था। जब उसे ज्ञानने यथार्थ एकरूप