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________________ २६८ समयसार यस्पीतमोहं, मूलोन्मूलं सकलमपि तत्कर्म कृत्वा बलेन । हेलोन्मोलत्परमकलया सार्धमारब्धकेलि, ज्ञानज्योतिः कवलिततमः प्रोज्जजम्भे भरेण ॥११२।। ॥ १६१-१६३ ॥ इति पुण्यपापरूपेण द्विपात्रीभूतमेकपात्रीभूय कर्म निष्क्रांतम् । इति श्रीमदमृतचं सूरिविचिताया समयसारव्याख्यायामात्मख्याती पुण्यपापप्ररूपकः तृतीयोऽकः ।। ३ ।। परिकथितं-प्र० ए० । तस्स तस्य-षष्ठी एकः । उदयेण उदयेन-तृतीया एक०। जीवो जीव:-प्र० एक० । अण्णाणी अज्ञानी-प्रथमा एक० । होदि भवति-वर्तमान लट अन्य पुरुष एक० किया। गायत्यो ज्ञातव्यःप्र० ए० कृदन्त किया । चारित्तपडिणिबद्धं चारित्रप्रति निबद्ध-प्र० ए० | कसायं कषायः-प्र० ए. | जिणवरेहि जिनबर:-तृतीया बह । परिकहियं परिकथित-प्रथमा एक० कृदन्त क्रिया। तस्स तस्य-षष्ठी एक० । उदयेण उदयेन-तृतीया एक० । जीबो जीवः-प्रथमा एक । अचरित्तो अचरित्र:-प्रथमा एका० । होदि भवति-वर्तमान अन्य० एक० क्रिया । गायव्यो ज्ञातव्य:-प्रथमा एकवचन कृदन्त क्रिया ।। १६१-१६३ ।। जान लिया तब वह कर्म रंगभूमिसे निकल गया। उसके बाद ज्ञान अपनी शक्तिसे यथार्थ प्रकाशरूप हुमा । इस प्रकार कर्म नृत्यके प्रखाड़ेमें पुण्य पापरूप दो भेषमें बनकर नाचता था, उसे ज्ञानने जब यथार्थ जान लिया कि कर्म एकरूप ही है, तब कर्म एकरूप होकर निकल गया। प्रसंगविवरण-अनन्तरपूर्व गाथामें कमंको स्वयं बन्धस्वरूप बताया गया था। अब उसके समर्थनमें दिखाया गया है कि कर्म मोक्षहेतुका तिरोधायी है । तथ्यप्रकाश-(१) सम्यक्त्व स्वभावका प्रतिबंधक मिथ्यात्वकर्म है, उसके उदयका निमित्त पाकर ही ज्ञानके (पात्माके) मिथ्यादृष्टित्व होता है । (२) ज्ञानस्वभावका प्रतिबंधक प्रज्ञान (ज्ञानावरण) है उसके उदयसे ही ज्ञानके प्रज्ञानपना होता है। (३) चारित्रस्वभावका प्रतिबंधक कषायकर्म है, उसके उदयसे हो ज्ञानके अपारित्रता होती है । (४) शुभाशुभ कर्म मोक्षहेतुके प्रतिबंधक हैं। सिद्धान्त-(१) मिथ्यात्वकर्मके उदयसे जीवके मिथ्यात्व होता है । (२) ज्ञानावरण के उदयमे जीवके अज्ञान होता है। (३) कषायप्रकृतियोंके उदयसे बीवके प्रचारित्र होता है । दृष्टि-१, २, ३-- उपाधिसापेक्ष मशुद्धद्रव्याथिकनय (५३) । प्रयोग-निमित्तभूत व नैमित्तिकभूत शुभाशुभभावोंको प्रलक्षित कर परमार्थ ज्ञानमात्र भावमें उपयुक्त होनेका पौरुष करना ।। १६१-१६३ ।।
SR No.090405
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherBharat Varshiya Varni Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1995
Total Pages723
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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