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________________ प्रास्रवाधिकार २६६ अथ आरमनाधिकारः ___अथ प्रविशत्यास्त्रयः। अथ महामदनिर्भरमंथरं समररंगपरागतमास्रबं । प्रयमुदारगभीरमहोदयो जयति दुर्जयबोधधनुर्धरः ॥ ११३ ।। नामसंझ--मिच्छत्त, अविरमण, कसायजोग, य, सणसण्ण, दु, बहुविहभेय, जीय, तस्स, एव, अणष्णपरिणाम, णाणावरणादीय, त, दु, कम्म, कारण, त, पि, जीवो, य, रागदोषादिभावकर । धातुसंज्ञअवि-रम क्रीडायां, कस तनूकरो, जोय योजनायां, हो सत्तायां । प्रातिपदिक-मिथ्यात्व, अविरमण, प्रब प्रानव प्रवेश करता है । सो यहाँ इस स्वांगको यथार्थ जानने वाले सम्यग्ज्ञानकी महिमारूप मंगल करते हैं-अथ इत्यादि । अर्थ--अब समररंगमें आये हुए महामदसे भरे हुए मदोन्मत्त मानवको यह उदार गंभीर महाउदय वाला दुर्जय ज्ञान धनुर्धर जीतता है । भावार्थ--यहां नृत्यके मंचपर सब जगतको जीतकर मत्त हुए साम्रबने प्रवेश किया है । उसको पराजयका वर्णन यहां वोररसको प्रधानतासे किया है कि दुर्जय बोधरूपधनुषधारी ज्ञान पानवको जीतता है । अर्थात् अन्तमुहूर्तमें कर्मका नाश करके यह ज्ञानस्वरूप प्रात्मा केवल. जान उत्पन्न कर लेता है । ऐसो ज्ञानकी सामर्थ्य व महिमा है ।। अब पासवका स्वरूप कहते हैं:-[मिथ्यात्वं अविरमरणं] मिथ्यात्व, अविरति [च कषाययोगौ] और कषाय योग [संज्ञासंज्ञाः तु] ये चार प्रास्रव संज्ञ व प्रसंज्ञ हैं याने चेतना के विकाररूप और जड़-पुद्गलके विकाररूप ऐसे भिन्न-भिन्न हैं। उनमें से [जीधे] जीवमें प्रकट हुए [बहुविधमेवाः] बहुत भेद बाले संज्ञ प्रास्रव है वे [वस्यव अनन्य परिणामाः] उस जीवके हो भभेदरूप परिणाम हैं [तु ते] परन्तु असंझ प्रास्रव [ज्ञानावरणावस्य] भानावरण आदि [कर्मणः] कर्मके बंधनेके [कारणं] कारण [भवंति] हैं [च] और [सेषामपि उन प्रसंज्ञ प्रास्त्रवोंका भी याने असंज्ञ प्रास्रवोंके नवीन कर्मबंधका निमित्तपना होनेका कारण अर्थात् निमित्त भी [रागद्वेषाविमावकरः] रागद्वेष आदि भावोंका करने वाला [जीवः] जीव [भवति होता है। तात्पर्य--कर्मबन्धके निमित्तभूत उदयागत असंज्ञ प्रास्रवको इस निमित्तताका कारण रागद्वेषमोह है अतः राग द्वेष मोह ही पानव है । टोकार्थ---रागद्वेष मोह ही प्रास्रव हैं जो कि अपने परिणामके निमित्तसे हुए हैं सो जड़पना न होनेपर दे चिदाभास है याने उनमें चैतन्यका आभास है क्योंकि मिथ्यात्व, प्रवि
SR No.090405
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherBharat Varshiya Varni Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1995
Total Pages723
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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