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प्रास्रवाधिकार
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अथ आरमनाधिकारः ___अथ प्रविशत्यास्त्रयः।
अथ महामदनिर्भरमंथरं समररंगपरागतमास्रबं ।
प्रयमुदारगभीरमहोदयो जयति दुर्जयबोधधनुर्धरः ॥ ११३ ।। नामसंझ--मिच्छत्त, अविरमण, कसायजोग, य, सणसण्ण, दु, बहुविहभेय, जीय, तस्स, एव, अणष्णपरिणाम, णाणावरणादीय, त, दु, कम्म, कारण, त, पि, जीवो, य, रागदोषादिभावकर । धातुसंज्ञअवि-रम क्रीडायां, कस तनूकरो, जोय योजनायां, हो सत्तायां । प्रातिपदिक-मिथ्यात्व, अविरमण,
प्रब प्रानव प्रवेश करता है । सो यहाँ इस स्वांगको यथार्थ जानने वाले सम्यग्ज्ञानकी महिमारूप मंगल करते हैं-अथ इत्यादि । अर्थ--अब समररंगमें आये हुए महामदसे भरे हुए मदोन्मत्त मानवको यह उदार गंभीर महाउदय वाला दुर्जय ज्ञान धनुर्धर जीतता है । भावार्थ--यहां नृत्यके मंचपर सब जगतको जीतकर मत्त हुए साम्रबने प्रवेश किया है । उसको पराजयका वर्णन यहां वोररसको प्रधानतासे किया है कि दुर्जय बोधरूपधनुषधारी ज्ञान पानवको जीतता है । अर्थात् अन्तमुहूर्तमें कर्मका नाश करके यह ज्ञानस्वरूप प्रात्मा केवल. जान उत्पन्न कर लेता है । ऐसो ज्ञानकी सामर्थ्य व महिमा है ।।
अब पासवका स्वरूप कहते हैं:-[मिथ्यात्वं अविरमरणं] मिथ्यात्व, अविरति [च कषाययोगौ] और कषाय योग [संज्ञासंज्ञाः तु] ये चार प्रास्रव संज्ञ व प्रसंज्ञ हैं याने चेतना के विकाररूप और जड़-पुद्गलके विकाररूप ऐसे भिन्न-भिन्न हैं। उनमें से [जीधे] जीवमें प्रकट हुए [बहुविधमेवाः] बहुत भेद बाले संज्ञ प्रास्रव है वे [वस्यव अनन्य परिणामाः] उस जीवके हो भभेदरूप परिणाम हैं [तु ते] परन्तु असंझ प्रास्रव [ज्ञानावरणावस्य] भानावरण
आदि [कर्मणः] कर्मके बंधनेके [कारणं] कारण [भवंति] हैं [च] और [सेषामपि उन प्रसंज्ञ प्रास्त्रवोंका भी याने असंज्ञ प्रास्रवोंके नवीन कर्मबंधका निमित्तपना होनेका कारण अर्थात् निमित्त भी [रागद्वेषाविमावकरः] रागद्वेष आदि भावोंका करने वाला [जीवः] जीव [भवति होता है।
तात्पर्य--कर्मबन्धके निमित्तभूत उदयागत असंज्ञ प्रास्रवको इस निमित्तताका कारण रागद्वेषमोह है अतः राग द्वेष मोह ही पानव है ।
टोकार्थ---रागद्वेष मोह ही प्रास्रव हैं जो कि अपने परिणामके निमित्तसे हुए हैं सो जड़पना न होनेपर दे चिदाभास है याने उनमें चैतन्यका आभास है क्योंकि मिथ्यात्व, प्रवि