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________________ समयसार तत्रालयस्वरूपमभिदधाति - मिच्छत्तं अविरमणं कसायजोगा य सणसण्णा दु । बहुविहभेया जीवे तस्सेव अणगणपरिणामा ॥१६॥ णाणावरणादीयस्स ते दु कम्मस्स कारणं होति । तेसिपि होदि जीवो य रागदोसादिभावकरो ॥१६५॥ (युगलम) मिथ्यात्व तथा अविरति, कषाय अरु योग चेतनाचेतन । जीवमें विविध प्रत्यय, अभेद परिणाम हैं उसके ॥१६४॥ वे प्रत्यय होते हैं, ज्ञानावरणादि कर्मके कारण। उनका कारण होला, रागद्वषादि भावयुत प्रात्मा ॥१६॥ मिध्यात्वमविरमणं कषाययोगौ च संज्ञासंज्ञास्तु । बहुविधभेदा जीवे तस्यैवानन्यपरिणामाः ।। १६४ ।। ज्ञानावरणाद्यस्य ते तु कर्मण: कारणं भवति । तेषामपि भवति जीव: च रागद्वेषादिभावकरः ॥ १६५ ॥ रागद्वेषमोहा पासवा: इह हि जीवे स्वपरिणामनिमित्ताः, प्रजडत्वे सति चिदाभासाः, मिथ्यात्वाविरतिकषाययोगा: पद्गलपरिणामाः, ज्ञानावरणादिपुद्गलकर्मासवरणनिमित्तत्वात्किकषाययोग, च, संज्ञासंज्ञ, तु, बहुविधभेद, जीव, तत्, एव, अनन्यपरिणाम, ज्ञानावरणाच, तत्, तु, कर्मन, कारण, तत्, अपि, जीब, च, रागद्वेषादिभावकर । मूलधातु- रमु कीडायां, भिदिर विदारणे रुधादि, परिणम प्रह्वत्वे, भू सत्तायां, रन्ज रागे । पदविवरण-मिच्छत्तं मिथ्यात्वं-प्रथमा एक० । अविरमणं-प्र० ए० । रति, कषाय और योग पुद्गलके परिणाम ज्ञानावरण प्रादि पुद्गलोंके मानेके निमित्त होनेसे वे प्रकट भासव तो हैं, किन्तु उन प्रसंज्ञ प्रास्रवोंमें ज्ञानावरणादि कर्मों के प्रागमनके निमित्तपनाके निमित्त हैं. आत्माके अज्ञानमय राग, द्वेष, मोह परिणाम । इस कारण नवीन मिथ्यात्व आदिक कर्मके प्रास्त्रवके निमित्तपनाका निमित्तपना होने से राग द्वेष मोह ही प्रास्रव हैं और वे अज्ञानीके ही होते हैं ऐसा तात्पर्य गाथाके अर्थमें से ही प्राप्त होता है । भावार्थ-ज्ञानावरणादि कर्मों के प्रास्त्रवरणका निमित्त तो मिथ्यात्वादि कर्मके उदयरूप पुद्गलके परिणाम हैं और उन कर्मोके पानेका निमित्त उदयामतकर्म बन जायें उस निमित्तपने का निमित्त जीवके राग द्वेष मोहरूप परिणाम हैं, उनको चिद्विकार भी कहते हैं, वे जीवके अज्ञान अवस्थामें होते हैं। सम्यग्दृष्टिक अज्ञान अवस्था होती नहीं क्योंकि मिथ्यात्वसहित ज्ञानको प्रज्ञान कहते हैं । सम्यग्दृष्टि ज्ञानी हो गया है इसलिये यहाँ ज्ञान अवस्थामें अज्ञानमय रागादि नहीं हैं । फिर भी प्रविरत सम्यग्दृष्टि प्रादिके चारित्रमोहके उदयसे जो रागादिक होते हैं, उनका यह स्वामी नहीं है, उदयकी बलवत्ता है, उनको ज्ञानो रोगके समान समझकर
SR No.090405
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherBharat Varshiya Varni Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1995
Total Pages723
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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