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प्रानवाधिकार लास्रवाः । तेषां तु तदास्रवणनिमित्तत्व निमित्तम् अज्ञानमया प्रात्मपरिणामा रागद्वेष मोहाः । कसायजोगा-प्रथमा बहु० । कषाययोगी-प्र० बहु० । य च-अव्यय । सणसणा संज्ञासंज्ञा:-प्र० बहु० । दु तु-अव्यय । बहुविहभेया बहुविधभेदाः-प्र० बहु० । जीवे-सप्तमी एक० । तस्स तस्य-षष्ठी एक० । एवअध्यथ । अणण्णपरिणामा अनन्यपरिणामा:-प्र. बहु० । णाणावर णादीयस्स ज्ञानावरणावस्य-षष्ठी ए० । मेटना चाहता है । इस अपेक्षासे ज्ञानोके राग नहीं है । मिथ्यात्वसहित जो रागादिक होते हैं, ही प्रज्ञापमस रग देव बोह हैं और वे दातानीके ही हैं, सम्यग्दृष्टिके नहीं हैं ।
तात्पर्य सम्यग्दृष्टि के बुद्धिपूर्वक प्रास्त्रव बंध नहीं है और जो पहलेके बद्ध कर्म हैं उनका वह ज्ञाता होता है।
प्रसंगविवरण-समयसारकी अधिकार गाथामें बताया गया था "भूयत्थेणाभिगया जीवाजीया य पुण्णपावं च, प्रासयसंवरणिज्जर बंधो मोखो य सम्मत्तं" इसके अनुसार जीव अजीव पुण्य पापका अधिकार पूर्ण हो गया। अब प्रास्रबका वर्णन करना क्रमप्राप्त है । सो सर्वप्रथम इस गाथायुगलमें प्रास्रवका स्वरूप कहा गया है अथवा अनन्तरपूर्व अधिकारमें पुण्य पाप कर्मका वर्णन हुआ है, सो उस विषय में यह जिज्ञासा हुई कि पुण्य-पाप कर्मोका यात्रव (प्राना) किस प्रकार होला, जिसकी जानकारीसे यह प्रकाश मिले कि वह योग न बनाया जावे जिससे कि पुण्य पाप कर्मका प्रास्त्रब हो। इस जिज्ञासाका समाधान करनेके लिये यहाँ प्रास्रवका प्रवेश हुमा, जिसमें सर्वप्रथम प्राधका स्वरूप यहां कहा गया है।
तथ्यप्रकाश-१-जीवके अज्ञान परिणाम (प्रात्माकी बेसुधी) से जीवमें राग द्वेष मोह भावरूप पासव होते हैं । २- जीवमें होने वाले राग द्वेष मोह भाव जीवकी परिणति होनेसे जड़ नहीं हैं और जीवमें स्वभाव नहीं होनेसे चेतन नहीं, किन्तु चिदाभास हैं । ३- प्रचेतन मिथ्यात्व अविरति कषाय योग तो पुद्गलकर्म प्रकृतिरूप हैं। ४- चेतन मिथ्यात्व अविरति कषाय योग जीवके परिणाम हैं । ५- उदयप्राप्त अचेतन मिथ्यात्व अविरति कषाय योग याने द्रव्यप्रत्यय नवीन ज्ञानावरणादि पुद्गलकमके प्रतिबके निमित्तभूत हैं। ६- द्रव्यप्रत्ययके निमित्तसे होने वाले चेतन मिथ्यात्वादि भाव द्रव्यप्रत्ययमें नवीन कर्मके आस्रवकी निमित्तता आ जावे इस निमित्तताके निमित्त हैं। ७-वास्तव में प्रास्रव जीवके राग द्वेष मोह हैं, क्योंकि ये पुद्गलकर्भास्त्रवणके निमित्तकी निमित्तताके निमित्त हैं । ८-प्रज्ञानमय राग, द्वेष, मोह जीवपरिणाम अज्ञानीके ही होते हैं ।
सिद्धान्त-१-अचेतन मिथ्यात्व अविरति कषाय योग पुद्गलद्रव्य के अनन्य परिणाम हैं । २-चेतन मिथ्यात्व प्रादि भाव अज्ञानी जीवके अनन्य परिणाम हैं । ३-जीवके बन्धनका कारण उदयांगत द्रव्यप्रत्यय है । ४--वस्तुतः जीवके बंधनका कारण स्वकीय रागादि अज्ञान