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प्रतिषिद्धं । संन्यस्तव्यमिदं समस्तमपि तत्कर्मेव मोक्षार्थिना, संन्यस्ते सति तत्र का किल कथा पुण्यस्य पापस्य वा । सम्यक्त्वादिनिजस्वभावभवनान्मोक्षस्य हेतुर्भवन्नैष्कर्म्य प्रतिबद्धमुद्धतरसं ज्ञानं स्वयं धावति ॥ १०६ ॥ यावत्पाकमुपैति कर्मविरतिर्ज्ञानस्य सम्यङ् न सा कर्मज्ञानसमुच्चयोऽपि विहितस्तावन्न काचित्क्षति । कित्वत्रापि समुल्लसत्यवशतो यत्कर्म बंधाय तन्मोक्षाय विद्ध, कसा, जिणवर, परिकहिय, तस्स, उदय, जीव, अचरित, णादव । धातुसंज्ञ - पडिणि बंध बंधने, परि-कह वाक्यप्रबन्धे, जाण अवबोधने हो सत्तायां । प्रातिपदिक– सम्यक्त्व प्रतिनिबद्ध, मिथ्यात्व दूर होनेपर ज्ञान, स्वयं अपने मोक्षके कारणमय स्वभावरूप हुआ निर्वाध प्रगट होता है ।
प्रश्न - - - अविरत सम्यग्दृष्टि प्रादिके जब तक कर्मका उदय है, तब तक ज्ञान मोक्षका कैसे हो सकता है तथा कर्म और शान दोनों एक साथ किस तरह रहते हैं ? इसके समाधान में काव्य कहते हैं -- यावत् इत्यादि । अर्थ-- जब तक कर्म उदयको प्राप्त है और ज्ञानके सम्यक् विरतिभाव नहीं है, तब तक कर्म और ज्ञान दोनोंका समुच्चय ( एकत्रीकरण ) भी कहा गया है और तब तक भी इसमें कुछ क्षति नहीं । किन्तु इस आत्मा में श्रवशपने जो कर्म प्रकट होता है वह तो बंधके हो लिये है और मोक्षके लिये एक परम ज्ञान ही निर्णीत है जो कि स्वतः विमुक्त है अर्थात् सदैव परद्रव्यभावोंसे भिन्न है । भावार्थ- - जब तक सम्यग्दृष्टि के संज्वलनकषायका भी उदय है तब तक उसके ज्ञानवारा व कर्मधारा दोनों चलती हैं । कर्म ती अपना कार्य करता ही है और वहीं पर ज्ञान हैं, वह भी अपना कार्य करता है । एक ही श्रात्मामें ज्ञान और कर्म दोनोंके इकट्ठे रहने में भी विरोध नहीं प्राता । जैसे मिथ्याज्ञान और सम्यग्ज्ञानका परस्पर विरोध है, उस प्रकार कर्मसामान्यके और ज्ञानके विरोध नहीं है ।
समयसार
अब कर्म और ज्ञानका नयविभाग दिखलाते हैं--- मग्नाः इत्यादि । श्रर्थ - कर्मनयके अवलम्बन में तत्पर याने कर्मनयके पक्षपाती तो डूबे हुए हैं हो, क्योंकि वे ज्ञानको नहीं जानते हैं, पर जो परमार्थ ज्ञानको तो जानते नहीं और ज्ञाननयके पक्षपाती हैं वे भी डूबे हुए हैं, क्योंकि वे आवश्यक क्रियाकांडको छोड़कर स्वच्छन्द हो मन्द उद्यमी हैं, किन्तु जो श्राप निरन्तर ज्ञानरूप हुए कर्मको तो करते नहीं तथा प्रभादके वश भी नहीं होते, स्वरूप में उत्साहवान हैं, वे लोकके ऊपर तैरते हैं ।
भावार्थ - यहां सर्वथा एकान्त अभिप्रायका निषेध किया गया है क्योंकि सर्वथा एकान्तका अभिप्राय होना ही मिथ्यात्व है। परमार्थभूत ज्ञानस्वरूप श्रात्माको तो जानना नहीं और व्यवहार दर्शन, ज्ञान और चारित्ररूप क्रियाकांडके श्राडम्बरको ही मोक्षका कारण जान उसमें ही तत्पर रहना और उसीका पक्षपात करना है, सो कर्मनय है । कर्मनयके पक्षपाती, ज्ञानको तो जानते नहीं हैं और इस कर्मनयमें ही खेदखिन्न हैं वे संसार समुद्रमें मग्न ही हैं ।