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प्रास्रवाधिकार हेतुमदभावस्य प्रसिद्धत्वात् ज्ञानिनो नास्ति वन्धः । अध्यास्य शुद्धनयमुद्धतबोधचिह्नमेकायमेव कलयंति सदैव ये ते । रागादिमुक्तमनसः सततं भवतः पश्यंति बंधविधुरं समयस्य सारं ॥१२०॥ । मोह, च, आत्रव, न, सम्यग्दृष्टि, तत्, आसवभाव, विना, हेतु, न, प्रत्यय, हेतु, चतुर्विकल्प, अष्टविकल्प, कारण, भणित, तत्, अपि, च, रागादि, तत्, अभाव, न । मूलधातुः-रन्ज रागे, द्विष अप्रीतो अदादि, मुह वचित्ये दिवादि, अस भुवि, भू सत्तायां, भण शब्दार्थः, बन्ध बन्धने । पदविवरण-रागो रागः-प्रधमा एक० । दोसो द्वेषः-प्र० एक० । मोहो मोह:-प्र० एक० । य च-अव्यय । आसवा आस्रवाः-प्रथमा बहु० । जहाँ जैसे ज्ञानीकी विवक्षा हो उस प्रकारका प्रबंधक समझना।
अब शुद्धनयका माहात्म्य कहते हैं-अध्यास्य इत्यादि । अर्थ-जो पुरुष उन्नत ज्ञान चिह्न वाले शुद्धनयको अङ्गीकार कर निरन्तर एकाग्रपने का अभ्यास करते हैं वे पुरुष रागादि से मुक्त चित्त वाले होते हुए बन्धसे रहित अपने शुद्ध प्रात्मस्वरूपको देखते हैं ।
भावार्थ-यहाँ शुद्धनयसे एकाग्र होनेका संदेश दिया गया है । सो साक्षात् शुद्धनयका होना तो केवलजान होनेपर होता है और श्रुतज्ञानके अंशरूप शुद्धनयके द्वारा शुद्धस्वरूपका श्रद्धान करना तथा ध्यान कर एकान होना यह यहाँ सम्भव है । सो यह परोक्ष अनुभव है । एक देश शुद्ध होने की अपेक्षा व्यवहारसे यह प्रत्यक्ष कहा गया है।
___ अब कहते हैं कि जो इससे चिग जाते हैं वे कर्मोको बाँधते हैं--प्रच्युस्य इत्यादि। अर्थ-- जो पुरुष शुद्धनयसे छूटकर फिर रागादिकके योगको प्राप्त होते हैं वे ज्ञानको छोड़कर जिस कर्मबंधने पूर्वबद्ध द्रव्यास्रबोके द्वारा अनेक प्रकारके विकल्पोंका जाल कर रक्खा है ऐसे कर्मबन्धको धारण करते हैं । भावार्य- ज्ञानी होनेके बाद भी शुद्धनयसे याने शुद्धताकी प्रतीति से चिा जाय तो वह रागादिके सम्बन्धसे द्रव्यास्त्रवके अनुसार अनेक प्रकारके कर्मोको बांधता है । यहाँ मिथ्यात्व सम्बन्धी रागादिकसे बन्ध होनेको प्रधानता की है और उपयोगकी अपेक्षा को गोरण रखा है । ज्ञानी अन्य ज्ञेयोंमें उपयुक्त होवे तो भी मिथ्यात्वके बिना जितना रागका अंश है वह ज्ञानीके अभिप्रायपूर्वक नहीं है, इसलिए उस स्थितिमें हुआ अल्पबन्ध संसारका कारण नहीं है । चारित्रमोहके रागसे कुछ बन्ध होता है वह अज्ञानके पक्षमें नहीं गिना, परंतु बन्ध अवश्य है सो उसीके मेटनेको शुद्धनयसे न छूटनेका और शुद्धोपयोगमें लोन होनेका सम्यग्दृष्टि ज्ञानीको उपदेश है ।
प्रसंगविवरण-अनंतरपूर्व गाथाचतुष्कमें बताया गया था कि भावास्रवका अभाव होनेसे द्रव्यप्रत्यय बन्धके हेतु (पासव के हेतु) नहीं होते । इसी प्रर्थका समर्थन इस गाथायुग्म में किया गया है ।
तथ्यप्रकाश-१..अविरत सम्यग्दृष्टि के अनंतानुबंधोकषायसम्बन्धी राग द्वेष मोह नहीं