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________________ ३२२ समयसार प्रच्युत्य शुद्धनयतः पुनरेव ये तु, रागादियोगमुपयाति विमुक्तबोधाः । ते कर्मबन्धमिह विभ्रति . पूर्वबद्धद्रव्यास्रवः कृतविचित्रविकल्पालं ॥१२१।। ।।१७७-१७८।। ण न-अव्यय । अस्थि संति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष बहुवचन । सम्मदिदिरग सम्यग्दृष्टे:-षष्ठी एक । तम्हा तस्मात्-पंचमी एक० । आसवभावण आस्रवभावेन-तृतीया ए० । विणा बिना-अव्यय । हेदू हेतवः- . प्रथमा बहु० । ण न-अन्यय । पच्च या प्रत्यया:-प्र० बहु० । हाँति भवंति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष बहु० । हेदू हेतवः प्रथमा बहु० । चदूवियपो चतुर्विकल्प:-प्रथमा एकवचन । अट्ठवियप्पस्स अष्टविकल्पस्य-षष्ठी । एक० । कारणं-प्रथमा एक० । भणिदं भणितं-प्रथमा एक० कृदन्त किया । तेसि तेषां-षष्ठी बहु । पि अपि-अव्यय । य च--अव्यय । रागादी रागादयः-प्रथमा बहु । तेसिं तेषां-पष्टी बहु० । अभावे-सप्तमी एक० । ण न--अव्यय । बझंति बध्यन्ते-वर्तमान लट् अन्य पुरुष वहुवचन भावकर्मप्रक्रिया क्रिया ।।१७७ १७॥ हैं अन्यथा सम्यग्दर्शन नहीं हो सकता था। २.-देशसंयत सम्यग्दृष्टि के अनन्तानुबंधी अप्रत्यास्यानावरण सम्बन्धी रागद्वेषमोह नहीं हैं । ३. प्रमतविरत सम्यग्दृष्टिके प्रनंतानुबन्धी अप्रत्याख्यानावरण व प्रत्याख्यानावरण सम्बन्धी राग द्वेष मोह नहीं है । ४-अप्रमत्तविरत सम्यग्दृष्टि के अनन्तानुबन्धी अप्रत्याख्यानर व प्रत्याख्यानावरण संबंधी तथा संज्वलनतीद्रोदयजनित राग द्वेष मोह नहीं है । ५--श्रेणिगत अपूर्वकरण अनिवृत्तिकरण गुणस्थानमें तत्तद्योग्य स्थूल संज्वलन रागादि नहीं है । १ --सूक्ष्मसाम्परायमें सूक्ष्मसंज्वलन लोभ आदि कोई भी राग नहीं है । ७-द्रध्यप्रत्यय द्रव्यास्रवका निमित्त बने इसका निमित्त भावास्रव होता है । -ज्ञानीके गुणस्थानानुसार राग द्वेष मोह नहीं है अतः उसके द्रव्य प्रत्यय दव्यास्रवके हेतु नहीं होते, अतः ज्ञानीके बन्ध नहीं कहा गया । ६-ज्ञानीके संसारस्थिति वाला कर्मबन्ध न होनेसे सरागदशामें हुए अल्पबंधको यहाँ बन्ध नहीं कहा गया । सिद्धान्त-१-ज्ञानीके सहजसिद्ध ज्ञानस्वभावको भावना होनेसे अज्ञानमय भावात्रव नहीं होते। २--द्रव्यप्रत्यय नवीनकर्मबन्धके निमित्तभूत हैं । दृष्टि-----शानिय (१९४) । २-निमित्तदृष्टि (५३ अ)। प्रयोग-सर्व विरुद्धतावोंको संकटोंको दूर करनेके लिये सर्वविकारोंको परभाव जानकर उनका लगाव छोड़कर अपने अविकार चैतन्यस्वरूपके अभिमुख रहनेका प्रवर्तन करना १७७-१७८ ॥ अब इसी अर्थका समर्थन दृष्टांत पूर्वक करते हैं:- [यथा] जैसे [पुरुषेरण] पुरुषके द्वारा [गृहीतः] ग्रहण किया गया [पाहारः] आहार [स उवराग्निसंयुक्तः] वह उदराग्निसे युक्त हुआ [अनेकविध] अनेक प्रकार [मांसवसारुधिरादीन] मांस वसा रुधिर आदि [मायाद] भावों रूप [परिणमति] परिणमता है [तथा तु ज्ञानिनः] उसी प्रकार ज्ञानीके [पूर्व बद्धाः]
SR No.090405
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherBharat Varshiya Varni Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1995
Total Pages723
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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