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________________ ३२३ मानवाधिकार जह पुरिसेणाहारो गहिरो परिणमइ सो अणेयविहं । मंसवसारुहिरादी भावे उयरग्गिसंजुत्तो ॥१७॥ तह णाणिस्स दु पुव्वं जे बद्धा पच्चया बहुवियपं । बज्झते कम्मं ते णयपरिहीणा उ ते जीवा ॥१८०॥ (युगलम्) ज्यौं नर गृहीत भोजन, होकर जठराग्नियुक्त नानाविध । मांस वसा रुधिरादिक, रसभावारूप परिणमता ॥१७६॥ त्यो ज्ञानीके पहिले, बद्ध द्वा लो अनेक प्रत्याय हैं। विविध कर्म यदि बाँधे, जानो वे शुद्धनयच्युत हैं ॥१०॥ यथा पुरुषेणाहारो गृहीतः परिणमति सोऽनेकविधं । मांसवसारुधिरादीन भावान् उदराग्निसंयुक्तः ।।१७६।। तथा ज्ञानिमस्तु पूर्व बद्धा ये प्रत्यया बहुविकल्पं । बध्नति कर्म ते नयपरिहोनास्तु ते जीवाः ।।१८०॥ ___ यदा तु शुद्धनयात परिहीणो भवति ज्ञानी तदा तस्य रागादिसद्भावात् पूर्वबद्धाः द्रव्यप्रत्ययाः स्वस्य हेतुत्वहेतुसद्भावे हेतुमद्भावस्यानिवार्यत्वात् ज्ञानावरणादिभाव: पुद्गलकर्मबंध परिणामयंति । न चैतदप्रसिद्धं पुरुषगृहीताहारस्योदराग्निना रसरुधिरमांसादिभावैः परिणामकरणस्य दर्शनात् । इदमेवात्र तात्पर्य हेयः शुद्धनयो न हि । नास्ति वस्तदत्यागात् तस्यागाद् नामसंज्ञ -जह, पुरिस, आहार, गहिम, त, अणेयविह, मंसवसागहिरादि, भाव, उयरग्गिसंजुत्त, तह, पाणि, दु, पुथ्व, ज, बद्ध, पच्चय, बहुवियप्प, कम्म, त, णयपरिहीण, उ, त, जीव । धातुसंज्ञ—गह ग्रहणे, परि-णम अर्पणे, जु मिश्रणे, बन्ध बन्धने । प्रातिपदिक-यथा, पुरुष, आहार, गृहीत, तत्, अनेकविध, मांस, बसारुधिरादि, भाव, उदराग्निसंयुक्त, तथा, ज्ञानिन्, तु, पूर्व, यत्, बद्ध, प्रत्यय, बहुविकल्प, कर्मन्, तत्पूर्व बँधे [ये] जो [प्रत्ययाः] द्रव्यप्रत्यय [ते] वे [बहुविकल्पं] बहुत भेदों वाले [कर्म] कर्म को [बध्नति] बांधते हैं। [] वे [जीवाः] जीव [तु नयपरिहीनाः] शुद्धनयसे रहित हैं। तात्पर्य--पुरुषगृहीत पाहारके नाना परिणमनकी तरह पूर्वबद्ध द्रव्यप्रत्ययसे गृहीत कर्मके प्रकृति प्रदेश प्रादि नाना बंधरूप परिणमन हो जाते हैं। टीकार्थ-जिस समय ज्ञानी शुद्धनयसे छूट जाता है उस समय उसक रागादि भावोंके सद्भावसे पूर्व बंधे हुए द्रव्यप्रत्यय अपने हेतुत्वके हेतुका सद्भाव होनेसे कार्यभावका होना अनिवार्य होने के कारण ज्ञानावरणादि भावोंसे पुद्गलकर्मको बंधरूप परिणमाते हैं। और यह बात अप्रसिद्ध नहीं है । पुरुष द्वारा ग्रहण किया गया आहार भी उदराग्निसे रस, रुधिर, मांस आदि भावोंसे परिणमन करना देखने में आता है । भावार्थ-- ज्ञानी भी जब शुद्धनयसे छूटता तब रागादिरूप होता हुमा कर्मोको बांधता है । क्योंकि रागादिभाव द्रव्याखवके निमित्त के निमित्त होते हैं तब वे द्रव्यप्रत्यय अवश्य कर्मबन्धके कारणभूत होते हैं।
SR No.090405
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherBharat Varshiya Varni Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1995
Total Pages723
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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