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समयसार बंध एव हि ॥१२॥ धीरोदारमहिन्यनादिनिधने बोधे निबध्नन् धृति, त्याज्यः शुद्धनयो न जातु कृतिभिः सर्वकषः कर्मणां । तत्रस्थाः स्वमरीचिचक्रमचिरात्संहृत्य नियंबहिः, पूर्ण शाननयपरिहीन, तु, तत् जीव । मुलधातु -ग्रह उपादाने ऋ यादि, परि-णम प्रसत्वे, बन्ध बन्धने । पद विवरणजह यथा-अव्यय । पुरिसेण पुरुषेण-तृतीया एक । आहारो आहार:-प्रथमा एक० । गहिओ गृहीत:-प्र० एक० । परिणमदि परिणमति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एक०। सो स:-प्र० एक० । अणेय विहं अनेकविधंक्रियाविशेषण अव्ययरूपे, मंसवसारुहिरादी मांसक्सारुधिरादीन-द्वि० बहु० । भावे भावान्-द्वि० बहु०। उपररिंगसंजुत्तो उदराग्निसंयुक्त:--प्र० ए० | तह तथा--अव्यय । पाणिस्स ज्ञानिन:-षष्ठी एक० । दुतु-अ० । पुच्वं पूर्व-क्रियाविशेषण अव्ययरूपे, जे ये-प्र० बहु० । बद्धा बद्धाः-प्रथमा बहु० । पच्चया प्रत्यया:-प्रथमा
यहाँ इसी अर्थका तात्पर्य कहते हैं। इद इत्यादि । अर्थ-यहाँ पहले कथनका यही तात्पर्य है कि शुद्धनय त्यागने योग्य नहीं है, क्योंकि उस शुद्धनयका त्याग न होनेसे तो कर्म का बन्ध नहीं होता और उसके त्यागसे कर्मका बन्ध होता ही है। फिर उस शुद्ध नयके हो ग्रहणको दृढ़ करते हुए काव्य कहते हैं - धीरो इत्यादि । अर्थ-चलाचलपनेसे रहित, सर्व पदार्थों में विस्तार युक्त, महिमावान, अनादिनिधन, कर्मों को मूलसे नाश करने वाला शुद्ध नय धर्मात्मा पुरुषोंके द्वारा कभी छोड़ने योग्य नहीं है, क्योंकि शुद्धनयमें स्थित पुरुष बाहर निकलते हुए अपने ज्ञानको व्यक्तिविशेषोंको तत्काल समेटकर सम्पूर्ण ज्ञानधनका समूह स्वरूप, निश्चल शांतरूप, ज्ञानमय प्रतापके पुत्रको अवलोकते अर्थात् अनुभवते हैं ।
भावार्थ-~-शुद्धनय समस्त ज्ञानके विशेषोंको गौणकर तथा समस्त परनिमित्तसे हुए । भावोंको गौण कर चिन्मात्र अन्तस्तत्वको शुद्ध नित्य प्रभेद एक स्वरूप ग्रहण करता है । सो ऐसे सहज शुद्ध विन्मात्र अपने प्रात्माको जो अनुभव कर एकाग्र स्थित हैं वे ही समस्त कर्मों के समूहसे विविक्त अविकार ज्ञानमूर्ति स्वरूप अपने प्रात्माको देखते हैं । प्राध्यात्मिक शुद्धनय में अन्तर्मुहूर्त ठहरनेसे शुक्लध्यानकी प्रवृत्ति होकर केवलझान उत्पन्न होता है । सो इसको अवलंबन कर जब तक केवलज्ञान न उत्पन्न हो तब तक फिर इससे छूटना नहीं, ऐसा प्राचार्य देवका उपदेश है। अब प्रास्रव का अधिकार पूर्ण हो रहा है। यहाँ रंगभूमिमें प्रास्रवका स्वांग बना था उसको ज्ञानने यथार्थ जान स्वांगको हटवा दिया और श्राप सहज विशुद्ध प्रगट हमा इस प्रकार ज्ञानकी महिमा काव्य द्वारा कहते हैं... रागादिना इत्यादि । अर्थ-रागादिक प्रास्रवोंके झट सर्वतः दूर होनेसे नित्य उद्योत रूप किसी परम वस्तुको अंतरंगमें अवलोकन करने वाले पुरुषका प्रचल, अतुल यह ज्ञान प्रति विस्ताररूप फैलता हुमा अपने निज रसके प्रवाहसे सब लोक पर्यंत अन्य, भावोंको अंतर्मग्न करता हुआ उदय रूप प्रगट हुमा।
भावार्थ- शुद्धनयके अवलंबनसे जो पुरुष अंतरंगमें चैतन्यमात्र अन्तस्तत्त्वको एकाग्र