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प्रास्त्रवाधिकार धनोधमेकम य मंति शांतं मह.. समादीनांगिति विगमात् सर्वतोप्यास्रवारणा, निस्योद्योतं किमपि परमं वस्तु संपश्यतोऽतः । स्फारस्फारः स्वरसविसरः प्लाश्यत्सर्वभावा-नालोकांतादचलमतुलं ज्ञानमुन्मग्नमेतत् ।।१२४।। इति प्रास्रवो निष्क्रांतः ।। १७६-१८० ॥
इति श्रीमदमृतचंद्रसूरिविरचितायां समयसारव्याख्यायामात्मख्याती
__आलवारूपकः चतुर्थोऽङ्कः ।।४।। बहु० । बहुवियप्पं बहुविकल्प-द्वितीया एकवचन कर्मविशेषण । बज्झते बध्नन्ति वर्तमान लट् अन्य पुरुष बहु० क्रिया । कम्मं कर्म-द्वितीया एकवचन कर्मकारक । ते-प्रथमा बहु० । णयपरिहीणा नयपरिहीना:-प्र० बहु । उ तु-अव्यय । ते-प्रथमा बहु० । जीवा जीवाः-प्रथमा बहुवचन.।। १७६-१८० ।। अनुभवते हैं उनके सब रागादिक प्रास्रव भाव दूर हो जाते हैं तब सब पदार्थोको जानने वाला केवलज्ञान प्रगट होता है । इस प्रकार प्रास्रवका स्वांग रंगभूमिमें बना था उसका ज्ञानने यथार्थस्वरूप जान लिया तब वह निकल गया।
प्रसंगविवरण--अनंतरपूर्व गाथायुग्ममें कहा था कि भावास्रवके बिना द्रव्यप्रत्यय कर्मबन्धके हेतु नहीं है, हाँ जब शुद्धनयसे च्युत हो प्रात्मा रागादियोगको प्राप्त होता है तब वह कर्मबंधका बोझ करने लगता है । इसी प्रर्थका समर्थन इस गाथायुग्म में उदाहरणपूर्वक किया है।
तथ्यप्रकाश-१-प्रखण्ड सहजसिद्ध अन्तस्तत्वका नयपक्षपातरहित होकर निरखना शुद्धनय कहलाता है। २-जब प्रान्मा शुद्धनयमें उपयुक्त है तब उसे प्रवन्धक कहा है । ३-जब ज्ञानी शुद्धनयसे रहित हो जाता है तब वहाँ रागादिकके होनेसे उदित द्रव्यप्रत्ययके निमित्तसे कार्माणवर्गणा ज्ञानावरणादि कर्म रूपसे परिणमने लगते हैं। ३-जैसे पुरुषगृहीत पाहार जठराग्नि द्वारा रसादिरूपसे परिणम जाता है वैसे ही शुदनय-परिहीन जीवके योग द्वारा गृहीत कार्माणवर्गणा स्कन्ध रागादिभावके द्वारा ज्ञानावरणादिरूपसे परिणम जाते हैं।
सिद्धान्त--१- शुद्धनयपरिहीन जीबके रामादिभावका निमित्त पाकर द्रव्यप्रत्यय नवीन कर्मबन्धके निमित्त हो जाते हैं । २-शुद्धनयमें उपयुक्त प्रात्माके रागपि भावास्रवके अभावसे बन्ध नहीं होनेके कारण सहज प्रानन्द अभ्युदित होता।
दृष्टि-१-उपाधिसापेक्ष अशुद्ध द्रव्याथिकनय, निमित्तदृष्टि (५३, ५३अ)। २-अनोश्वरनय (१८६)।
प्रयोग-रागादिभाव विकारको सकलसंकटहेतु बन्धहेतु जानकर उस परभावसे उपेक्षा करके अविकार ज्ञानस्वरूपमें उपयुक्त होनेका पौरुष करना ॥१५६-१८०॥ इस प्रकार श्री अमृतचंदजी सूरि द्वारा विरचित समयसारख्याख्या प्रात्मख्यातिमें
मानबका प्ररूपण करने वाला चतुर्थ अङ्क पूर्ण हुमा ।