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समयसार
अथ संनराधिकार
अथ प्रविशति संवरः । प्रासंसारविरोधिसंवरजयकांतावलिप्तात्रवन्यक्कारात्प्रतिलब्ध. नित्यविजय संपादयत्संवरं । ज्यावृत्तं पररूपतो नियमितं सम्यक् स्वरूपे स्फुरज्ज्योतिश्चिन्मयमु. ज्ज्वल निजरसप्राग्भारमुज्जम्भते ॥१२५।।
नामसंश---उवओग, कोहादि, ण, को, वि, उवओग, कोह, च, एव, हि, उवओग, ण, खलु, कोह, अट्ठवियप्प, कम्म, णोकम्म, च, अवि, ण, उवओग, य, कम्म, गोकम्म, च, अवि, णो, एयं, तु, अविवरीद,
अब रंगभूमिमें संवर प्रवेश करता है। प्रथम हो टोकाकार मंगल के लिये चिन्मय ज्योतिका अनुमोदन करते हैं--आसंसार इत्यादि । अर्थ-प्रनादि संसारसे लेकर अपने विरोधी संघरको जीतकर एकांतपनेसे मदको प्राप्त हुए प्रासबके तिरस्कारसे जिसने नित्य ही जोत पाई है ऐसे संवरको उत्पन्न कराती हुई, परद्रव्य और परद्रव्य के निमित्तसे हुए भावोंसे भिन्ल, अपने यथार्थ स्वरूपमें नियमित, उज्ज्वल, देदीप्यमान, निजरसके ही प्राग्भारसे युक्त चिन्मय ज्योति प्रकट हो सकती है ! महार्थ --सनादिकालसे संकर पासवका विरोधी है, उस संवरको प्रास्रवने जीत लिया था इसलिये मदसे उन्मत्त होकर सारे विश्वपर नृत्य कर रहा था । अब भेदज्ञानके बलसे इस ज्ञानज्योतिने प्रास्रबका तिरस्कार कर संवरको प्राप्त कर विजय पाई । अब सब पररूपोंसे भिन्न अपने स्वरूप में निश्चल होकर यह ज्योति निर्बाध फैल रही है।
वहाँ संवरके प्रवेशके प्रारंभमें ही समस्त कर्मोके संवरणके परम उपायरूप भेदविज्ञान को अभिवन्दना करते हैं:--[उपयोगे] उपयोगमें [उपयोगः] उपयोग है [क्रोधादिषु] क्रोध प्रादिकोंमें [कोऽपि उपयोगः] कोई भी उपयोग [नास्ति नहीं है [च] और [हि] निश्चयसे [क्रोधे एव] क्रोधमें ही [क्रोधः] क्रोध है [उपयोगे] उपयोगमें [खलु] निश्चयतः [क्रोधः नास्ति] क्रोध नहीं है, [अष्टविकल्पे कर्मरिण] पाठ प्रकारके झानावरण प्रादि कर्मोंमें [] तथा [मोकर्मणि अपि] शरीर आदि नोकर्मों में भी [उपयोगः नास्ति] उपयोग नहीं है [च] और [उपयोगे] उपयोगमें [कर्म च नोकर्म अपि] कर्म और नोकर्म भी [नो अस्ति नहीं है [एतत्त] ऐसा [मविपरीतं] सत्यार्थ [भानं] ज्ञान [जीवस्य] जीवके [यवा] जिस काल में [ममात] हो जाता है [तवा] उस कालमें [उपयोगशुओत्मा] केवल उपयोग स्वरूप