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संवराधिकार
३२७ तत्रादावेव सकलकर्मसंवरणस्य परमोपायं भेदविज्ञानमभिनंदति
उपयोगे उपभोगो कोहादिसु णत्थि कोवि उवयोगो। कोहे कोहो चेव हि उवोगे णत्थि खलु कोहो ॥१८१॥ अट्ठबियप्पे कम्मे पोकम्मे चावि गस्थि उपयोगो। उवयोगह्मि य कम्मं णोकम्मं चावि णों अस्थि ॥१८२॥ एयं तु अविवरीदं गाणं जइया उ होदि जीवस्स । तइया ए किंचि कुबदि भावं उवोगसुद्धप्पा ॥१८३॥ (त्रिकलम्)
उपयोगमें उपयोग, क्रोधादिमें उपयोग नहिं कोई । क्रोधादिमें क्रोधादि,, उपयोगमें क्रोधादि नहीं ॥११॥ कर्म नोकर्ममें नहि, होता उपयोग शुद्ध परमात्मा । उपयोगमें न होते, कर्म व नोकर्म भी कोई ॥१२॥ यह यथार्थ सत्प्रज्ञा, होती जब इस सुभव्य प्रात्माके ।
तब परभाव न करता, केवल उपयोग शुद्धात्मा ॥१३॥ उपयोगे उपयोगः क्रोधादिषु नास्ति कोप्युपयोगः । क्रोधे क्रोधश्चय हि उपयोगे नास्ति खलु क्रोधः ।।१८१॥ अष्टविकल्पे कर्मणि नोकधि चापि नास्त्युपयोगः । उपयोगे च कर्म नोकर्म चापि नौ अस्ति ।।१५।। एतत्वविपरीतं ज्ञानं यदा तु भवति जीवस्य । तदा न किंचित्करोति भावमुपयोगशुद्धात्मा ॥१८३॥
न खल्वेकस्य द्वितीयमस्ति द्वयोभिन्न प्रदेशत्वेनैकसत्तानुपपत्तेस्तदसत्त्वे च तेन सहाधाराधेयसंबंधोऽपि नास्त्येव, ततः स्वरूपप्रतिष्ठितत्वलक्षण एवाधाराधेयसंबंधोऽवतिष्ठते । तेन ज्ञानं णाण, जया, उ, जीव, तइया, ण, किचि, भाव, उबओग, सुद्धप्पा । धातुसंज्ञ-अस सत्तायां, हो सत्तायां, कुव्व करणे, सुज्झ नैमल्ये । प्रातिपदिक- उपयोग, क्रोधादि, न, किम्, अपि, उपयोग, क्रोष, च, एव, हि, शुद्धात्मा [किंचित् भावं] उपयोगके सिवाय अन्य कुछ भी भाव [न करोति नहीं करता।
तात्पर्य-चतन्यमात्र आत्मामें चेतना ही पाया जाता, क्रोधनादिक नहीं ऐसा जानने वाला ज्ञानी चेतने के सिवाय वस्तुतः अन्य कुछ नहीं करता।
टोकार्थ--वास्तवमें एक द्रव्यका दूसरा द्रव्य कुछ भी नहीं है, क्योंकि दोनोंका भिन्न भिन्न प्रदेश होनेसे एक सत्त्व नहीं बनता और सत्त्वके एक न होनेसे उसके साथ प्राधाराधेय सम्बन्ध भी नहीं है । इस कारण द्रव्यका अपने स्वरूप में ही प्रतिष्ठारूप माधाराधेय सम्बन्ध ठहरता है, इसलिए ज्ञान जाननक्रियारूप अपने स्वरूपमें प्रतिष्ठित है, क्योंकि जाननपना याने जाननक्रिया ज्ञानसे अभिन्न स्वरूप होनेके कारण ज्ञान में ही है और क्रोधादिफ हैं वे क्रोध