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________________ --- - - --- ३२८ समयसार जानत्तायां स्वरूपे प्रतिष्ठितं । जानत्ताया ज्ञानादपृथग्भूतत्वात् ज्ञाने एव स्यात् । क्रोधादोनि क्रुध्यत्तादौ स्वरूपे प्रतिष्ठितानि, कुध्यत्तादेः क्रोधादिभ्योऽपृथग्भूतत्वात्क्रोधादिष्वेव स्युः, न पुनः क्रोधादिषु कर्मणि नोकर्मरिण वा ज्ञानमस्ति, न च ज्ञाने क्रोधादयः कर्म नोकर्म वा संति परस्परमत्यंत स्वरूपवैपरीत्येन परमार्थाधाराधेयसंबंधशून्यत्वात् । न च यथा जानस्य जानत्तास्वरूपं तथा क्रुध्यत्तादिरपि, क्रोधादीनां च यथा क्रुध्यत्तादिस्वरूपं तथा जानत्तापि कथंचनापि व्यवस्थापयितुं शक्येत, जानत्तायाः क्रध्यत्तादेश्च स्वभावभेदेनोद्भासमानत्वात् स्वभावभेदाच्च वस्तुभेद एवेति नास्ति ज्ञानाज्ञानयोराधाराधेयत्वं । किं च यदा किलैकमेवाकाशं स्वबुद्धिमधिरोप्याधाराउपयोग, न, खलु, क्रोध, अष्टविकल्प, कर्मन्, नोकर्मन, च, अपि, न, उपयोग, च, कर्मन्, नोकर्मन्, च, अपि, नो, एवं, तु, अविपरीत, शान, बदा, तु, जीव, तदा, न, किचित्, भाव, उपयोग, शुद्धात्मन् । मूलधातुउप-युजिर योगे, अस भुवि, भू सत्तायां, क्रुध-क्रोधे दिवादि, डुकृञ् करणे, शुध शौचे दिवादि । पवियरण - उवओगे उपयोगे-सप्तमी एकवचन । उवओगो उपयोग:--प्रथमा एकवचन । कोहादिसु क्रोधादिषुसप्तमी एक० । ण न-अव्यय । अस्थि अस्ति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एक० । को क:-प्र० ए० । वि अपिप्रादि क्रियारूप अपने स्वरूपमें प्रतिष्ठित हैं, क्योंकि क्रोधनादिरूप क्रिया क्रोधादिकसे अभिन्नप्रदेशी होनेके कारण क्रोषनादि रूप क्रिया क्रोधादिमें हो है तथा क्रोधादिकमें अथवा कर्म नोकर्ममें ज्ञान नहीं है और ज्ञानमें क्रोधादिक अथवा कर्म नोकर्म नहीं है, क्योंकि ज्ञानका तथा कोषायिक और कर्म नोकर्मका प्रापसमें स्वरूपका अत्यन्त विपरीतपना है उनका स्वरूप एक नहीं है । इसलिए परमार्थरूप प्राधाराधेय सम्बन्धका शून्यपना है। तथा ज्ञानका जैसे जाननक्रियारूप जानपना स्वरूप है वैसे ही क्रोधनादि रूप क्रियापना स्वरूप बन जाय व क्रोधादिक का कोयत्व प्राविक क्रियापना जैसे स्वरूप है उस तरह जानन क्रिया स्वरूप बन जाय यह किसी तरहसे भी स्थापन नहीं किया जा सकता है। क्योंकि जाननक्रिया और क्रोधनादि क्रिया स्वभावभेदसे भिन्न-भिन्न ही प्रकट प्रतिभासमान हैं, और स्वभावके भेदसे ही वस्तुका भेद है यह नियम है । इस कारण जानका और प्रज्ञानस्वरूप क्रोधादिकका प्राधाराधेय भाव नहीं है । मोर क्या ? देखिये जैसे एक ही आकाशद्रव्यको अपनी बुद्धिमें स्थापित करके जब प्राधाराधेयभाव निरखा जाता है तब आकाशके सिवाय अन्य द्रव्योंका अधिकरणरूप प्रारोपका निरोध होनेसे बुद्धिको भिन्न प्राधारको अपेक्षा नहीं रहती । और भिन्न प्राधारको अपेक्षा न रहनेपर एक ही माकाशको एक प्राकाशमें ही प्रतिष्ठित निरखने वालेको प्राकाशका प्राधार अन्य द्रव्य नहीं प्रतिभात होता है । इसी तरह जब एक ही ज्ञानको अपनी बुद्धिमें स्थापित कर प्राधाराधेय भाक निरखा जाता है तब शेष अन्य द्रव्योंका अधिरोप करनेके निरोधसे ही मुसिको भिन्न प्राधारकी अपेक्षा नहीं रहती। भिन्न प्राधारको अपेक्षा बुद्धिमें न रहनेपर एक
SR No.090405
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherBharat Varshiya Varni Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1995
Total Pages723
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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