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________________ संवराधिकार ३२६ धेयभावो विभाव्यते तदा शेषद्रध्यांतराधिरोपनिरोधादेव बुद्धेर्न भिन्नाधिकरणापेक्षा प्रभवति । तदप्रभवे चैकमाकाशमेवैकस्मिन्नाकाश एव प्रतिष्ठित विभावयतो न पराधाराधेयत्वं प्रतिभाति । एवं यदैकमेव ज्ञानं स्वबुद्धिमधिरोग्याधाराधेयभावो विभाध्यते तदा शेषद्रव्यान्तराधिरोपनिरोधादेव बुद्धेर्न भिन्नाधिकरणापेक्षा प्रभवति । तदप्रभवे चंकं ज्ञानमेवैकस्मिन् ज्ञान एवं प्रतिष्ठितं विभावयतो न पराधागधेयत्वं प्रतिभाति । ततो ज्ञानमेव जाने एद, क्रोधादय एव क्रोधादिष्वेवेति अव्यय । उवओगो उपयोगः-प्रथमा एक० । कोहे क्रोधे-सप्तमी एका । कोहो अोधः-प्रथमा एक० । च अव्यय । हि-अव्यय । उवओगे उपयोगे-सप्तमी एक० णस्थि, खलु-अव्यय । कोहो क्रोधःप्र० ए० । अढवियप्पे 'अष्टविकल्पे-स० एक० 1 कम्मे कर्मणि-सप्तमी एक० । णोकम्मे नोकर्मणि-सप्तमी एक० । च, अपि, ण, अस्थि अस्ति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एकवचन । उवओगो उपयोग:--प्र० ए०। उवओगम्हि उपयोगे-सप्तमी एक. , , करम -२० एक। दिम गोलो-अव्यय । अस्थि, एवं ज्ञान ही ज्ञानमें प्रतिष्ठित निरखने वालेको अन्यका अन्यमें आधाराधेय भाव प्रतिभासित नहीं होता । इसलिए ज्ञान हो ज्ञान में ही है और क्रोधादिक हो क्रोधादिकमें ही है। इस प्रकार शानका और क्रोधादिक व कर्म नोकर्मका भेदज्ञान अच्छी तरह सिद्ध हुआ। भावार्थ-उपयोग तो चेतनका परिणमन होनेसे ज्ञानस्वरूप है और क्रोधादिक भावकर्म, ज्ञानावरणादि द्रव्यकर्म, शरीरादि नोकर्म ये सब पुद्गलद्रव्यके ही परिणाम होनेसे जड़ हैं, इनमें और ज्ञान में प्रदेशाभेद होनेसे अत्यन्त भेद है । इसी कारण उपयोगमें तो क्रोधादिक, कर्म, नोकर्म नहीं हैं और क्रोधादिक कर्म, नोकर्ममें उपयोग नहीं है । सो इनमें परमार्थस्वरूप प्राधाराधेय भाव नहीं हो सकता है। अपना अपना प्राधाराधेय भाव अपने अपनेमें है। इस भेदको जानना ही भेदविज्ञान है यह अच्छी तरह सिद्ध हुना। __ अब इसी अर्थको कलशमें कहते हैं--- चद्रूप्यं इत्यादि । अर्थ-चैतन्यरूपको धारण करता हुप्रा शान और जरूपको धारण करती हुअा राग इन दोनोंका जो अशानदशामें एकत्व दिखता था उसको अन्तरंगमें अनुभव के अभ्यासरूप बलसे अच्छी तरह विदारणके द्वारा सब प्रकार विभाग करके यह निर्मल भेदज्ञान उदयको प्राप्त होता है इस कारण हे सत्पुरुषो ! तुम इस भेदज्ञानको प्राप्त करके दूसरेसे याने रागादिभावोंसे रहित होते हुए एक शुद्ध ज्ञानघनके समूहका प्राश्रय कर उसमें लोन होकर मुदित होभो । भावार्थ-ज्ञान तो चेतनास्वरूप है और रागादिकपुद्गल के विकार होनेसे जड़ हैं सो. दोनों प्रशानसे एकरूप विदित होते हैं । सो जब भेदविज्ञान प्रकट हो जाता है तब ज्ञानका और रागादिकका भिन्नपना प्रकट होता है तब यह ज्ञानी ऐसा जानता है कि ज्ञानका स्वभाव
SR No.090405
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherBharat Varshiya Varni Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1995
Total Pages723
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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