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समयसार साधु सिद्धं भेदविज्ञान । चद्रूप्यं जहरूपतां च दधतोः कृत्वा विभाग द्वयोरंतरणदारणेन परितो ज्ञानस्य रागस्य च । भेदज्ञान मुदेति निर्मलमिदं मोदध्वमध्यासिताः शुद्धज्ञानघनौघमेकमधुना संतो द्वितीयच्युताः ।।१२६॥ एवमिदं भेदविज्ञानं यदा ज्ञानस्य बंपरीत्यकणिकामप्यनासादयवि. चलितमवतिष्ठते तदा शुद्धोपयोगमयात्मत्वेन ज्ञान ज्ञानमेव केवलं सन्न किंचनापि रागद्वेष मोह. एतत्-प्र० एक० । तु, अविवरीदं अविपरीत-प्र० एक० । जइया, यदा-अव्यय । दु तु-अव्यय । होदि भवति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एकवचन क्यिा । जीवरस जीवस्य--षष्ठी एक० । तइया तदा-अव्यय । ण तो जाननेमात्र ही है और ज्ञान में जो रागादिकको कलुषता व प्राकुलतारूप संकल्प विकल्प प्रतिभासित होते हैं ये सब पुद्गलके विकार हैं, जड़ हैं। यह भेदविज्ञान सब विभाव भावोंके मेटनेका कारण होता है और प्रात्मामें परमसंवरभावको प्राप्त करता है । इसलिये सत्पुरुषोंसे कहते हैं कि भेदविज्ञान पाकर रागादिकोंसे रहित होकर शुद्ध ज्ञानधन प्रात्माका प्राश्रय लेकर शाश्वत सहज प्रानन्दको प्राप्त हो ।
ऐसा यह भेदविज्ञान, जिस समय ज्ञानको रागादिविकाररूप विपरीतपनेकी करिणका को नहीं प्राप्त करता हुआ अविचलित ठहरता है, उस समय वह ज्ञान शुद्धोपयोगमयात्मकता से ज्ञान रूप ही केवल हुआ किचिन्मात्र मी राग द्वेष मोह भावको नहीं रचता। उस भेदविज्ञानसे शुद्धात्माकी प्राप्ति होती है और शुद्धात्माकी प्राप्तिसे राग-द्वेष-मोहस्वरूप प्रास्रवभावों का प्रभावस्वरूप संवर होता है।
प्रसंगविवरण-अनन्तरपूर्व प्रास्रवाधिकार पूर्ण होकर पासव निष्क्रान्त हो गया था । अब क्रमप्राप्त संवरतत्त्वका प्रवेश हुमा है, सो इसमें सर्वप्रथम समस्तकर्मके संवरण (प्रास्रवनिरोध) का परमोपायरूप भेदविज्ञान दर्शाया है।
तध्यप्रकाश---१-एक द्रव्यका दूसरा द्रव्य कुछ भी नहीं लगता, क्या प्रत्येकके प्रदेश समस्त अन्यसे अत्यन्त भिन्न हैं । २-उपयोगमें याने उपयोगस्वरूप प्रात्मद्रव्यमें क्रोधादि कर्म नहीं हैं, क्रोधादिकर्मों में उपयोग नहीं है । ३-गुणमुख्यतासे कथन करनेपर ज्ञान में क्रोध नहीं है, क्रोधमें ज्ञान नहीं है । ४-ज्ञानमें ज्ञान हो है अथवा प्रात्मामें प्रात्मा ही है । ५-क्रोधमें क्रोध ही है अथवा कर्ममें कर्म हो है ।
सिद्धान्त---१-जीव अपने स्वरूपमें तन्मय है, पुद्गल अपने स्वरूपमें तन्मय है । २-प्रात्मद्रव्यमें कर्म, नोकर्म, विभाष कुछ भी नहीं है।
दृष्टि--१-स्वद्रव्यादिग्राहक द्रव्याधिकनय (२८)। २-परद्रव्यादिग्राहक द्रध्याथिकनय (२६)