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संघराधिकार रूपं भावमारचयति । ततो भेदविज्ञानाच्छुद्धात्मोपलंभः प्रभवति । शुद्धात्मोपलंभात रागद्वेषमोहाभावलक्षणः संवरः प्रभवति ॥१८१.१८३।। न-अव्यय 1 किचि किचित्-अध्यय अन्तः किं-प्र० ए० । कुदि करोति--वर्तमान लट् अन्य पुरुष एक क्रिया । भावं-द्वितीया एक० ! उवओगसुद्धप्पा उपयोगसुद्धात्मा-प्रथमा एकवचन कर्ताकारक ।।१८१-१८३।।
प्रयोग-~ज्ञानस्वरूप प्रात्मामें ज्ञानस्वरूपको ही निरखकर मानवनिरोधके वातावरण में अपनेको निराकुल अनुभवना ॥१८१-१८३॥
__अब प्रश्न होता है कि भेदविज्ञानसे ही कैसे शुद्धात्माकी प्राप्ति होती है ? इसका उत्तर गाथामें कहते हैं- [यथा] जैसे [कनकं] सुवर्ण [अग्नितप्तं अपि] अग्निसे तप्त हुना भी [तं] अपने [कनकभावं] सुवर्णपनेको [न परित्यजति] नहीं छोड़ता [तथा] उसी तरह [ज्ञानी ज्ञानी [कर्मोदयतप्तस्तु] कर्मोंके उदयसे तप्त हुअा भी [ज्ञानिवं] ज्ञानीपनेके स्वभाव को [न जहाति] नहीं छोड़ता [एवं] इस तरह [ज्ञानी] ज्ञानी [जानाति ] जानता है । और [अज्ञानी] अज्ञानी [अज्ञानतमोऽवच्छन्नः] अज्ञानरूप अंधकारसे व्याप्त होता हुआ [प्रात्मस्वभावं] अात्माके स्वभावको [प्रजानन्] नहीं जानता हुआ [रागभेव] रागको ही [प्रात्मानं] मात्मा [मनुते] मानता है ।
तात्पर्य-परभादसे भिन्न अन्तस्तत्त्वका दर्शी आत्मा कर्मविपाकसे संतप्त होनेपर भी ज्ञातापनको नहीं छोड़ता 1
टोकार्थ---जिसके यथोदित भेदविज्ञान है, वही उस भेदज्ञानके सद्धावसे ज्ञानी होता हुपा ऐसा जानता है। जैसे प्रचंड अग्निसे तपाया हुग्रा भी सुवर्ण अपने सुवर्णपनेको नहीं छोड़ता उसी तरह तीव्र कर्मके उदयसे घिरा हुआ भी ज्ञानी अपने ज्ञानपनेको नहीं छोड़ता, क्योंकि जो जिसका स्वभाव है वह हजारों कारण मिलनेपर भी अपने स्वभावको छोड़ने के लिये असमर्थ है । क्योंकि उसके छोड़नेपर उस स्वभाव मात्र वस्तुका ही प्रभाव हो जायगा, परन्तु वस्तुका प्रभाव होता नहीं, क्योंकि सत्ताका नाश होना असंभव है। ऐसा जानता हुना जानी कर्मोसे व्याप्त हुना भी रागरूप, द्वेषरूप और मोहरूप नहीं होता। किन्तु वह तो एक शुद्ध प्रात्माको ही प्राप्त करता है। परंतु जिसके यथोदित भेदविज्ञान नहीं है, वह उस भेदविज्ञान के प्रभावसे अज्ञानी हुमा अज्ञानरूप अंधकारसे आच्छादित होनेके कारण चैतन्यचमत्कार मात्र आत्माके स्वभावको नहीं जानता हुअा रागस्वरूप हो प्रात्माको मानता हुअा रागी होता है, द्वेषी होता है, मोही होता है, परंतु शुद्ध प्रात्माको कभी नहीं पाता। इससे सिद्ध हुमा कि भेदविज्ञानसे ही शुद्ध आत्माको प्राप्ति है।