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सर्व विशुद्धज्ञानाधिकार
विदे।
ता को जीवो वा जमा कम्मं चेव हि कम्मं घाएदि इदि भणियं ॥ ३३६ ॥ एवं संखुवएस जे उपरुविंति एरिसं समणा । तेसिं पडी कुव्वह अप्पा य कारया सुळे || ३४०॥ ग्रहवा मरासिम अप्पा अप्पाणमपणो कुगाई । एसो मिच्छमहावो तुम्हें एवं मुगांतस्स || ३४१॥ अप्पर fat संखिज्जपदेसो देखियो उ समयम्हि |
वि सो सकड़ तत्तो होणो अहियो य काउं जे ||३४२ ॥ जीवस्स जीवरूवं वित्थर दो जागा लोगमित्तं ख । तत्तो सो किं होणो अहियो व कहं कुगाइ दव्वं ॥ ३४३ ॥ यह जाणयो उ भावी गाणसहावेण यत्थि इत्ति मयं । तह्मा वि पापयं तु सयमपणो कुणाई || ३४४ ||
कमसे अज्ञानी, किया जाता ज्ञानी भि कर्मोंसे । कर्म सुला देते हैं, कर्म हि इसको जगा देते ॥ ३३२ ॥ कर्म सुखी करता है, दुखी भि होता तथैव कर्मोंसे । कर्म हि मिथ्यात्व तथा असंयमन भावको करता ॥ ३३३॥
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पुरिस, एत, आयरियपरंपरागया एरिसी, सुई, क, वि. जीव, अबंभचारि, अम्ह, उबएस, ज. भणिय, पर, *न, पर्याड, एत, अच्छ, किर, परघातनाम, इति, तत्, ण, क, वि, वधायअ, उबदेस, संखुवएस. ज. एरिस "समण, त पर्याड, अप्प, अकारय, सव्य, अहवा, अम्ह, मिन्छसहाव, तुम्ह, एस, मुणंत, णिच्च, असंखिज्ज• प्रदेस, देसि, व, समय, पवि, त, तत्तो, हीण, अहिअ, य, ज, जीवरूव, वित्थरदो लोगमित्त, खु, ल, किं, [तस्मात् ] इससे [कोपि जीवः ] कोई भी जीव [ श्रब्रह्मचारी न ] ब्रह्मचारी नहीं है [ श्रस्माकं तु उपदेशे ] हमारे उपदेशमें तो ऐसा है [ यस्मात्] कि [कर्म चैव हि ] कर्म ही [[कर्म श्रभिति ] कर्मको चाहता है [ इति भरिणतं ] ऐसा कहा है। [यस्मात् ] जिम कारण [ स प्रकृतिः ] वह प्रकृति ही [परं] दुसरेको [हंति ] मारता है [च] और [ परेश हन्यते] परके द्वारा मारा जाता है [ एतेन अर्थन] [ परघात नाम इति मध्यते ] यह परघात नामक प्रकृति है यह कहा जाता है इस कारण [ श्रस्माकं उपदेश ]
इसी ग्रर्थसे [तस्मात् ]