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समयसार कर्म भ्रमाता रहता, ऊर्ध्व अधः मध्यलोकमें इसको। कर्म किया करता है, शुभ व प्रशभ भाव भी सब कुछ ॥३३४॥ क्योंकि कर्म करता है, देता हरता है कर्म ही सब कुछ । इससे समस्त आत्मा, अकारक हि प्राप्त होते हैं ॥३३॥ पुरुषवेद नारीको, स्त्रोधेद मि कर्म पुरुषको चाहे । यह है प्राचार्यपरं-परागता श्रुति भी तत्साधक ॥३३६॥ अभिलाषा करता है, कर्मको कर्म यह बताया जब । तब फिर जीव भि कोई, व्यभिचारी भी न हो सकता ॥३३७॥ भू कि प्रकृति ही परको, घाते परसे व घात उसका हो । इस ही कारण उसका, परघातप्रकृति नाम हुभा ॥३३॥ इस कारणसे प्रात्मा, धातक नहिं है हमारे प्राशयसे । क्योंकि कर्मको कर्म हि, धाता करता बताया है ॥३३६॥ ऐसे सांख्याशयको, इस प्रकार श्रमण जो प्रकट करते । उनके प्रकृति हि कर्ता, प्रात्मा होते अकारक सब ॥३४०।। यदि मानो यह प्रात्मा, अपने आपका आप करता है। तो मान्यता तुम्हारी, है मिथ्याभावकी यह सब ॥३४१॥ जीव प्रसंख्यप्रदेशी, नित्य बताया जिनेन्द्र शासनमें ।
उससे कभी न छोटा, न बड़ा भी किया जा सकता ॥३४२॥ "कह. दब्ब, अह, जाणअ, भाव, णाणराहाव, इत्ति, मय, अप्पय, सयं, अप्प। धासुसंश-कर करणे, जग्ग निद्राक्षये, सुहाय सुखी करणे नामधातुप्रत्रिया, दुक्खाय दुखीकरणे नामधातुप्रक्रिया, ने प्रापणे, भम भ्रमणे, कर करणे, कुन्च करणे, दा दाने, हर हरणे, अहि लस इच्छाकोडनयोः, घात हिंसायां, प स्व घटनायां, मन्न अवबोधने, कुण करणे, सक्क सामर्थ्य, कर करणे, जाण अवबोधने, अस सत्तायां । प्रातिपदिक-कर्मन, हमारे उपदेशमें [कोपि जीवः] कोई भी जीव [उपधातको नास्ति] उपवात करने वाला नहीं है [यस्मात्] क्योंकि कर्म चंव हि] कर्म हो [कर्म हंतीति मरिणतं] कर्मको पातता है ऐसा कहा है [एवं तु] इस तरह [ये श्रमणाः] जो कोई यति [ईदृशं सांख्योपदेशं प्ररूपयंति] ऐसे सांख्यमतका उपदेश निरूपण करते हैं [तेषां] उनके मतमें [प्रकृतिः] प्रकृति हो [करोति] करती है [च सर्वे प्रात्मानः] और प्रात्मा सब प्रकारकाः] अकारक ही हैं, [अथवा] प्राचार्य कहते हैं यदि [मन्यसे] तू ऐसा मानेगा कि [मम आत्मा] मेरा प्रात्मा
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