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समयसार
कम्मे हिंदु अण्णाणी किजइ गाणी तहेव कम्मेहिं । कम्मे हिं सुवाविजइ जग्गाविज्जइ तहेव कम्मेहिं ॥३३२॥ कम्मे हिं सुहाविज्जइ दुक्खाविज्जह तहेव कम्मेहिं । कम्मेहिं य मिच्छत्तं णिज्जइ णिज्जइ असंजमं चेव ॥३३३॥ कम्मेहिं भमाडिज्जड् उड्ढमहो चावि तिरियलोयं य । कमेम्हिं चैव किज्जइ सुहासुहं जत्तियं किंचि ॥३३४|| जह्मा कम्मं कुबइ कम्मं देई हरत्ति जं किंचि । तमा उ सव्वजीवा अकारया हुँति श्रावण्णा ॥३३५॥ पुरिसित्थियाहिलासी इत्थीकम्मं च पुरिसमहिलसइ । पमा अायरियपरंपरागया एरिसी दु सुई ॥३३६॥ तह्मा गा कोवि जीवो अवंभचारी उ ब्रह्म उवएसे । जह्मा कम्मं चेव हि कम्मं अहिलसइ इदि भणियं ॥३३७॥ जमा घाएइ परं परेण घाइजए य सा पयडी।
एएणच्छेण किर भण्णइ परघायणामित्ति ॥३३॥ नामसंज्ञ----कम्म, दु, अण्णाणि, णाणि, तहेव, मिच्छत्त, असंजम, चेव, उड्ढं, अहो, तिरियलोय, सुहासुह, जित्तिय, किंचि, तत्, उ, सब्बजीव, अकारय, आवष्ण, पुरुमित्थियाहिलासि, इत्थीकम्म, च, तथा असंयम नीयते] असंयमको प्राप्त कराया जाता है [कर्मभिः ऊध्र्य चापि प्रधः च तिर्यग्लोक भ्राम्यते] जीव कर्मों के द्वारा ऊध्र्वलोक तथा अधोलोक और तिर्यग्लोकमें भ्रमाया जाता है [च कर्मभिः एव और कर्मोके द्वारा ही यत्किचित् यावत् शुभाशुभं क्रियते] जो कुछ शुभ अशुभ है वह किया जाता है । सो [यस्मात्] चूँकि [इति यत् किचित्] इस प्रकार जो कुछ भी है उसे [कर्म करोति] कर्म ही करता है [कर्म वदाति] कर्म ही देता है {हरति] कर्म ही हरता है [तस्मात्तु] इस कारण [सर्वजीयाः] सभी जोय [अकारका प्रापन्नाः भवंति प्रकर्ता प्रसक्त होते हैं। [ईदृशी एषा आचार्थपरंपरागता तु श्रुतिः] तथा ऐसो यह प्राचार्योको परिपाटीसे आई हुई धृति है कि [पुरुषः] पुरुषवेदकर्म तो स्त्र्यमिलाषी] स्त्रीका अभिलापी है [च] और [स्त्रीकर्म] स्त्रीवेदकर्म [पुरुवं अभिलषति पुरुषको बाहता है।