SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 608
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५५७ सर्वविशुद्धज्ञानाधिकार त्मनः कर्तृतां कर्ताष कथंचिदित्यचलिता कैश्चिछुतिः कोपिता । तेषामुद्धतमोहमुद्रितधियाँ बोधस्य संशुद्धये स्याद्वादप्रतिबंधलब्धविजया वस्तुस्थितिः स्तूयते ॥ २०४॥ ।। ३२८-३३१।। प्रकृतिः - प्र० ए० । ण न-अव्यय । जीवो जीवः प्र० ए० । पुग्गलदव्वं मिच्छत्तं पुद्गलद्रव्यं मिथ्यात्वं द्वि० ए० । करेदि करोति - वर्तमान लट् अन्य पुरुष एकवचन क्रिया । तम्हा तस्मात् पंचमी एक० । पुग्गलदव्यं मिष्यतं गुगल गियातु ण हु तु न खलु अव्यय । मिच्छा मिथ्याप्रथमा एकवचन || ३२८-३३१ ।। ६- मिथ्यात्वादि भावकर्म जीव में स्वभावसे नहीं होते, किन्तु मिथ्यात्वादि प्रकृत्युदयका निमित्त पाकर जीन में होते । १० - मिथ्यात्वादि भावकर्म पुद्गलमें कभी संभव ही नहीं है । ११ - शुद्ध • नयको दृष्टिसे मिथ्यात्वादि भावकर्म चिदाभास हैं । १२- शुद्ध निश्चयनयसे जोव मिथ्यात्वादि भावकर्मका कर्ता है । १३ - शुद्ध निश्चयनयसे जीव सम्यक्त्वादि स्वभावभावका कर्ता है | १४- परमशुद्ध निश्चयनय अथवा शुद्धनयकी दृष्टिसे जोव अकर्ता है । १५ - मिथ्यात्वादि भावकर्मका कर्ता पुद्गल नहीं | १६ - जीव तो परिणामी हो और मिथ्यात्वादि प्रकृति हठपूर्वक जीवको मिथ्यादृष्टि श्रादि कर दे ऐसा वस्तुस्वभाव नहीं । १७ - प्रकृति (कर्म) परिणमनस्वभावी है प्रोर जीव भी परिणमनस्वभावी है । १८ - जीव और कर्म दोनोंके हो परिणमनस्वभावी होनेपर उनमें परस्पर निमित्तनैमित्तिक संबंधको व्यवस्था है तथा बंध मोक्षकी प्रक्रिया है । ( १६ ) भिन्न पदार्थोंमें निमित्तनैमित्तिक संबंध हो सकता है । ( २० ) एक पदार्थ कर्तृकर्म है । सिद्धान्त - १ - जीव मिथ्यात्वादि भावकर्मका कर्ता है । २- कर्मप्रकृति मिथ्यात्वादिभावकर्मका कर्ता नहीं । ३-जीव प्रकर्ता व प्रभोक्ता है । दृष्टि - १ - शुद्ध निश्चयनय (४७) प्रयोग -- अपनी भूल के कारण किये अपने शुद्ध ज्ञानमात्र स्वरूप में विहार करना ।। ३२८-३३१ ।। २ - उपादानदृष्टि (४९) । ३ - शुद्धनय (४६) । i गये भावकर्मको अपनी सुधके बलसे दूर कर अब आत्माके कर्तृत्व व कर्तृ स्वके सम्बन्ध में स्याद्वादशासनका निध करते हैं--- [कर्मभिस्तु ] कर्मोंके द्वारा [ श्रज्ञानी] जीव प्रजानी [क्रियते] किया जाता है [तर्भव] उसी प्रकार [कर्मभिः ] कर्मो के द्वारा जीव [ज्ञानी ] ज्ञानो किया जाता है, जीव [कर्मभिः] कमौके द्वारा [स्वाप्यते ] सुलाया जाता है [ तथैव ] उसी प्रकार जीव [कर्मभिः ] कमौके द्वारा ही [ जागयंते ] जगाया जाता है [ कर्मभिः सुखीक्रियते ] कमौके द्वारा जीव सुखी किया जाता है [ तथैव ] उसी प्रकार जीव [कर्मभिः दुःखीकियते] कमौके द्वारा दुःखी किया जाता है [च] [कर्मभिः मिध्यात्वं नीयते ] कमौके द्वारा मिथ्यात्वको प्राप्त कराया जाता है [ चैच]
SR No.090405
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherBharat Varshiya Varni Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1995
Total Pages723
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy