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________________ ५५६ समयसार - - - - ..-- - -- - --- या प्रकृतेः स्वकार्यफलभुक्भावानुषंगात्कृतिः । नकस्याः प्रकृतेर चित्त्वलसनाज्जीवोऽस्य कर्ता ततो जीवस्यैव च कर्म तच्चिदनुगं ज्ञाता न यत्पुद्गलः ।।२०३।। कमब प्रवितयं कर्तृ हतकः क्षिप्त्वाअव्यय । जीवो जीवः-प्रथमा एक० । पयडी प्रकृति:-प्रथमा एक० । तह तथा-अव्यय । पुग्गलदध्व मिच्छत्तं पुदगलद्रव्यं मिथ्यात्व-द्वितीया एकवचन । कुणति कुर्वन्ति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष बहु० क्रिया । तम्हा तस्मात्-पंचमी एक । दोहिं द्वाभ्यां-तृ० बहु । कदं कृतं-प्रथमा एक० । तं तत्-प्रथमा एक० । दोष्णि प्र. बहु० । द्वी-प्र० दि० 1 वि अपि-अव्यय । भुंजंति-वर्तमान अन्य पुरुष बहु० क्रिया । भुंजाते-वर्तमान लट् अन्य पुरुष द्विवचन । तस्स तस्य-षष्ठी एक० । फल-द्वितीया एक० । अह ण अथ न-अव्यय । पथडी सर्वथा एकान्तवादो कर्मको ही कर्ता विचारकर प्रात्माके कर्तृत्वको उड़ाकर 'यह प्रात्मा कथंचित् करता है' ऐसी कहने वाली जिन-भगवानकी निर्वाध श्रतरूप वाणीको कोपित करते हैं याने जिनवाणीकी विराधना करते हैं ऐसे आत्मघातोको जिनकी कि बुद्धि तीन मोहसे मुद्रित हो गई है, उनके ज्ञानको संशुद्धि के लिए स्याद्वादसे निर्वाधित वस्तुस्थिति कही जाती है। मावार्थ-जो सर्वथा एकांतसे भावकर्मका कर्ता कर्मको ही कहते हैं और आत्माको अकर्ता कहते है, वे प्रात्माके स्वरूपके घातक हैं। जिनवाणो स्याद्वाद द्वारा वस्तुको निर्वाध कहती है। वह वाणी पात्माको कथंचित कर्ता कहती है सो उन सर्वथा एकांतवादियोंपर जिनवाणीका कोप है । उनको बुद्धि मिथ्यात्वसे ढक रही है। जानो गिः यात्वके दूर करनेको प्राचार्य स्याद्वादसे जैसे दस्तुको सिद्धि होती है वैसा अब कहते हैं। प्रसंगविवरण-अनन्तरपूर्व गाथाचतुष्कमें बताया गया था कि एक द्रव्यका दूसरे द्रव्य के साथ कुछ भी सम्बन्ध नहीं है, फिर कर्तृकर्मभाव एकका दूसरेके साथ कैसे हो सकता है । अब इस गाथाचतुरुकमें युक्तिपुरस्सर कर्म और आत्माका कर्तृकर्मत्व निराकृत किया है। तध्यप्रकाश-१-प्रत्येक पदार्थ अपनी अपनी ही परिणतिका कर्ता हुमा करता है । २-अज्ञानी जीवको परिणति मिथ्यात्व प्रादि भावकम है । ३- मिथ्याल्वादि भावकमका कर्ता भीव है अचेतन कर्म नहीं । ४- यदि अचेतन मिथ्यात्वप्रकृति मिथ्यात्वादि भावकर्मको कर दे तो भावकर्म जड़ हो जायगा। ५-जीव स्वके ही मिथ्यात्वादि भावकर्मका कर्ता है । ६-यदि जीव मिथ्यात्वादि भावकर्मको पुद्गलके कर दे तो पुद्गलद्रव्यको चेतन बन जाना पड़ेगा। ६-जीव व पुद्गल दोनों मिलकर मिथ्यात्वादि भावकर्म नहीं करते । ७- यदि मिथ्यात्वादिभावको जीवकी भांति पुद्गल भी करने लग जावे तो जीवकी तरह पुद्गलको भी मिथ्यात्वादि फल भोगनेका प्रसंग मा जावेगा | E- यदि मिथ्यात्वादि भावकर्मका कर्ता जीव व पुद्गल किसीको भी न माना जाय तो मिथ्यात्वादि भावकर्म किसीके भी हो स्वभावसे हो बैठेंगें ।
SR No.090405
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherBharat Varshiya Varni Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1995
Total Pages723
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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