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सर्वविशुद्धज्ञानाधिकार क्रियमारणे पुद्गलद्रव्यस्य चेतनानुपंगात् । न च जीवश्च प्रकृतिश्च मिथ्यात्वादिभावकर्मणो द्वौ कर्तारौ जीववदचेतनायाः प्रकृतेरपि तत्फलभोगानुषंगात् । न च जीवश्च प्रकृतिश्च मिथ्यात्वादिभावकर्मणो द्वौवायकर्तारी, स्वभावत एव पुद्गलद्रव्यस्य मिथ्यात्वादिभावानुपंगात् । ततो जीव: कर्ता स्वस्य कर्म कार्यमिति सिद्धं । कार्यत्वादकृतं न कर्म न च तज्जीवप्रकृत्योर्द्वयोरझा. प्रथमा एक० । पत्तो प्राप्ता-प्र० एक। अहवा अथवा-अध्यय। एसो एषः-प्र० ए० 4 जीवो जीव:-प्र० ए० । पुग्गलदब्बस्स पुद्गल द्रव्यस्य--पप्टी एक० । कुणइ करोति--वर्तमान लट् अन्य पुरुष एकवचन क्रिया । मिच्छत मिथ्यात्वं-द्वितीया एका । सम्हा तस्मात्-पंचमी एक । पुग्गलदव्वं पुद्गलद्रव्यं-प्रथमा एक । मिच्छाइट्ठी मिथ्या दृष्टि:-प्रथमा एकवचन । ण पुण न पुन:-अध्यय । जीवो जीवः-प्रथमा एकल । अह अथ-- सिद्ध हुआ कि मिथ्यात्व प्रादि भावकर्मका कर्ता जीव है और भावकर्म उस जीवका कार्य है।
भावार्थ-भावकमका कर्ता जीव ही है, यह इन गाथावों में सिद्ध किया है । परमार्थसे अन्य द्रव्य अन्य द्रव्यके भावका कर्ता होता ही नहीं है। इसलिये जो चेतनके भाव हैं उनका चेतन ही कर्ता होता है । इस जीत्रके अज्ञान से जो मिथ्यात्व ग्रादि भावरूप परिणाम हुए हैं वे चेतन हैं, जड़ नहीं हैं । शुद्धनयको तुलनामें उनको चिदाभास भी कहते हैं । इसलिये चेतनकर्मका कर्ता चेतन ही होना परमार्थ है। अभेददृष्टि में तो जीव शुद्ध चेतनामात्र है, परन्तु कर्मके निमित्तसे जब परिणमन करता है तब उन विभाव परिणामोंसे युक्त होता है। उस समय परिणाम-परिणामीको भेददृष्टि में अपने प्रज्ञानभाव परिणामोंका कर्ता जीव हो है । अभेद दृष्टिमें तो कर्ता-कर्मभाव ही नहीं हैं, शुद्ध चोतनामात्र जीववस्तु है । इस प्रकार यहां यह सम. झना कि चेतनकर्मका कर्ता चेतन ही है।
अब इसी अर्थको कलशरूप काव्यमें कहते हैं-कार्यत्वा इत्यादि । अर्थ-कार्यपना होनेसे कर्म अकृत याने बिना क्रिया नहीं होता। और ऐसा भी नहीं है कि वह भावकम जोव और प्रकृति इन दोनोंका किया हुआ हो, क्योंकि फिर तो जड़ प्रकृतिको भी उसको अपने कार्यका फल भोगनेका प्रसंग पाता है तथा भावकर्म एक प्रकृतिका ही कार्य हो ऐसा भी नहीं है क्योंकि प्रकृति तो अदेतन है और भावकर्म चेतन है। इस कारण इस भावकर्मका कर्ता जीव ही है व यह भावकर्म जीवका हो कर्म है, क्योंकि भावकर्म चेतनसे अन्वयरूप है । और पुद्गल ज्ञाता नहीं है इसलिये भावकम पुद्गलका नहीं है । भावार्थ-चेतनकर्म चेतनके ही हो सकता है। पुद्गलके चेतनकर्म कैसे होगा ?
अब जो कोई भावकर्मका भी कर्ता कर्मको ही मानते हैं उनको समझाने के लिये स्याद्वादसे बस्तुकी मर्यादाका सूचनाका काव्य कहते हैं-कर्मव इत्यादि । अर्थ-कोई अात्मघातक