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________________ ५५४ समयसार मिथ्यात्वं यदि प्रकृतिमिथ्या दृष्टि करोत्यात्मानं । तस्मादचेतना ते प्रकृतिनंनु कारका प्राप्ता ।।३२८|| अथवैष जीव: पुद्गलद्रव्यस्य करोति मिथ्यात्वं । तस्मात्पुद्गलद्रव्यं मिथ्याष्टिर्न पुनर्जीवः ॥३२६।। अथ जीवः प्रकृतिस्तथा पुद्गलद्रव्यं कुर्वन्ति मिथ्यात्वं । तस्मादाभ्यां कृतं नद द्वापि भुजाते तस्य फलं ।। अथ न प्रऋतिनं जीवः पुद्गलद्रव्यं करोति मिथ्यात्वं । तस्मात्पुद्गल द्वन्यं मिथ्यात्वं तनु न खलु मिथ्या ।। ___ जीत्र एवं मिथ्यात्वादिभावकर्मणः कर्ता तस्याचेतनप्रकृतिकार्यत्वेऽचेतनत्वानुषंगात् । स्वरयंव जीवो मिथ्यात्वादिभावकर्मणः कर्ता जीवेन पुद्गलद्रव्यस्य मिथ्यात्वादिभाव कर्मणि प्राप्ता, अथवा, एतत्, जीव, पुद्गलद्रव्य, मिथ्यात्व. तत्, पुद्गलद्रव्य, मिथ्यादृष्टि, न, पुमा, जीव, अथ, जीव, प्रकृति, तथा, पुद्गलद्रव्य, मिथ्यात्व, तत्. द्वि, कृत, तत्, द्वि. अपि, तत्. फल. अथ, न, प्रकृति, न, जीव, पुद्गलद्रव्य, मिथ्यात्व, तत्, पुद्गलद्रव्य, मिथ्यात्व, तत्, तु, न, खल, मिथ्या। मूलधातु - डुकृत्र करण, भुज पालनाभ्यवहारयोः रुधादि । पदविवरण मिच्छन मिथ्यात्वं-प्रथमा एक० । अदि यदिअव्यय । परडी प्रकृति:-प्रथमा एक० । मिच्छाइट्टी मिथ्या टि-द्वितीया एक । करेइ करोति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एकवचन । अप्पाणं आरमानं-द्वि० एकः । तम्हा तस्मात्-पत्र मी एक० । अचेदणा अचेलनाप्रथमा एकवचन । दे ते-षष्ठी एक । यडी प्रकृतिः-प्रथमा एक० । गणु तनु-अव्यय । कारगी कारका[कुर्वन्ति ] करते हैं [तस्मात्] ऐसा माना जाय तो [हाभ्यां कृत] दोनोंके द्वारा किया गया [तस्य तत् फलं] उसका वह फल दापि भुञ्जाते] दोनों ही भोग डालें । [अथ] अथवा यदि [पुदगलद्रव्यं मिश्नात्वं पुद्गल द्रव्यको मिथ्यात्वरूप [न प्रकृतिः न जीवः कुरुते न तो प्रकृति करती है और न जीद करता है [तस्मात्] ऐसा माना जाय तो [पुद्गलद्रव्यं मिथ्यात्वं] पुद्गलद्रव्य ही स्वभावसे मिथ्यात्व भावरूप हुमा तत्तु] सो ऐसा मानना [खलु] क्या [मिथ्या न] झूठ नहीं हैं ? इसलिये यह सिद्ध होता है कि अशुद्धनिश्चयसे मिथ्यात्वनामक भावकर्मका कर्ता अज्ञानी जीव है । तात्पर्य -... मिथ्यात्वप्रकृतिका उदय तो निमित्तमात्र है और वहां मिथ्यात्वभावरूप जीव हो परिणमता है। टीकार्थ--जीव ही मिथ्यात्व प्रादि भावकमका कर्ता है। यदि उसके अचेतन प्रकृति का कार्यपना माना जाय, तो उस भावकमको भी अचेतनपैनेका प्रसंग पा जायगा । जीवं.. प्रएने हो मिथ्यात्वे श्रादि भावकर्मका कर्ता है। यदि जीवके द्वारा पुद्गलद्रव्य के मिथ्यात्व 'पादिक भावकर्म किया गया माना जाय तो पुद्गलद्रव्यके भी चेतनपनेका प्रसंग मा जायगा। तथा जीव और प्रकृति दोनों ही मिथ्यात्व आदिक भावकर्मके कर्ता हैं, ऐसा भी नहीं है, क्योंकि फिर तो अचेतन प्रकृतिको भी जीवकी तरह उसका फल भोगने का प्रसग प्रा जायगा। सथा जीव और प्रकृति ये दोनों प्रकर्ता हों ऐसा भी नहीं है, क्योंकि यदि ये दोनों प्रकर्ता हो तो पुद्गलद्रव्यके अपने स्वभावसे ही मिथ्यात्व आदि भावका प्रसंग प्राता है. इससे यह
SR No.090405
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherBharat Varshiya Varni Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1995
Total Pages723
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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