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संविशुद्धशानाधिकार मिच्छत्तं जइ पयडी मिच्छाइट्टी करेइ अप्पाणं । तमा अचेदणा दे पयडी गणु कारगो पत्तो ॥३२८॥ अहवा एसो जीवो पुग्गलदव्वस्स कुणइ मिच्छत्तं । तमा पुग्गलदव्वं मिच्छाइट्ठी ण पुण जीवो ॥३२६॥ अह जीवो एयडी तह पुग्गलदव्वं कुणंति मिच्छत्तं । तह्मा दोहि कदं तं दोण्णिवि भुञ्जन्ति तस्स फलं ॥३३०॥ ग्रह ण पयडी ण जीवो पुग्गलदव्वं करेदि मिच्छत्तं । तमा पुग्गलदव्वं मिच्छत्तं तं तु ण हु मिच्छा ॥३३॥ मिथ्यात्व प्रकृति मिथ्या दृष्टी यदि प्रास्माको करता है। तो फिर प्रकृति अचेतन, हो कारक प्राप्त होवेषा ॥३२८॥ अथवा यदि जोव करे, पुद्गलद्रव्यके मिश्या प्रकृतिको। तो पुद्गल ही मिथ्या दृष्टि हुआ किन्तु जीव नहीं ॥३२६॥ यदि जीव प्रकृति दोनों, हि पुद्गलके मिथ्यात्वको करते। तो दोनोंके द्वारा, कृत विधिका फल भजे दोनों ॥३३०॥ यदि प्रकृति जीव दोनों, पुद्गल मिथ्यात्वको नहीं करते।
पुद्गलद्रव्य मिथ्याव, है यह कहना बने मिथ्या ॥३३१॥ नामसंशमिच्छत्त, जदि, पयडि, मिच्छाइडि, अप्प, तत्, अचेदण, ज, तुम्ह, पयडि, पणु, कारग, पत्त, अहवा, एत, जीव, पुग्गलदच्च, मिच्छत्त, त, पुगलदव्य, मिच्छाइट्ठि, ण, पुण, जीव, अह, जीव, पडि, तह, पुग्गलदव्य, मिच्छत्त, त, दु, कद, त, दु, वि, त, फल, अह, ण, पयाडि, ण, जीव, पुणलदव्य, मिच्छत्त, त, पुग्गलदत्व, मिच्छत्त, त, तु, ण, हु, मिच्छा । धातुसंज्ञ-कर करणे, कुण करणे, मुंज भोगे। प्रातिपदिक-मिथ्यात्व, यदि, प्रकृति, मिथ्याष्टि, आत्मन्, तत्, अचेतना, युष्मद, प्रकृति, ननु, कारका, जाय [तस्मात् ननु] तो अहो सांख्यमतानुयायो [ते अचेतना प्रकृप्तिः] तेरे मतमें प्रचेतन प्रकृति [कारका प्राप्ता] जीवके मिथ्यात्वभावको करने वाली हो पड़ी ? [अथवा] अथवा [एष जीवः] यह जीव हो [पुदगलद्रव्यस्य मिथ्यात्वं] पुद्गलद्रव्यके मिथ्यात्वको [करोति करता है [तस्मात्] ऐसा माना जाय तो ऐसा माननेसे [पुद्गलद्रव्यं मिथ्याष्टिः] पुद्गलद्रव्य मिथ्यादृष्टि हो पड़ा [न पुनः जीवः] जीव मिथ्यादृष्टि नहीं ठहरा ? [अथ] अथवा यदि [जीवः तथा प्रकृतिः] जीव और प्रकृति दोनों [पुद्गलद्रव्यं ] पुद्गलद्रव्यको [मिथ्यास्वं] मिथ्यात्वरूप