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समयसार
घटनास्ति न वस्तुभेदे पश्यंस्वकर्तृ भुनयश्च जनाश्च तत्त्वं ॥ २०९ ॥ ये तु स्वभावनियमं *लयंति ममज्ञानमग्न महसो बत ते बराकाः । कुर्वन्ति कर्म तत एव हि भावकर्म कर्ता स्वयं भवति चेतन एव नान्यः ।। २०२ ।। ।। ३२४-३२७ ।।
बहु० | भइ भणति - प्रथमा एक० । मोहेण मोहेन-तृतीया ए० । सो सः प्रथमा एकवचन । अप्पा आत्माप्र० एक० । एमेव एवमेव अव्यय । मिच्चादिट्ठी मिथ्यादृष्टिः प्र० एक० । गाणी ज्ञानी - प्र० ए० । निस्संसयं निःसंशयं - क्रियाविशेषण यथा स्वात । - अन्य पुरुष एक० क्रिया । एसो एषः - प्रथमा एकवचन । जो यः प्रथमा एक० । परदव्वं परद्रव्यं प्रथमा एक० । मम षष्ठी एक० । इदि इति- अव्यय । जाणतो जानन् - प्रथमा एक० । अप्पयं आत्मकं द्वितीया एकवचन । कुणइ करोति - वर्तमान लट् अन्य पुरुष एक० तम्हा तस्मात् पंचमी एक० ग न अव्यय । मेत्ति मेति-अव्यय । णिच्चा ज्ञात्वाअसमाप्तिकी क्रिया । दोष्हं येषां षष्ठी बहु० । वि अपि-अव्यय । एयाण एतेषां षष्ठी बहु० । कतविव. सायं कर्तृ व्यवसाय - द्वितीया बहुवचन । परदब्वे परद्रव्ये सप्तमी एक० । जाणतो जानन् प्रथमा एक० । जाणिज्जो जानीयात् विधिलिङ अन्य० एक० । दिट्टिरहियाणं दृष्टिरहितानां षष्ठी बहु० ।। ३२४-३२७ ।।
तथ्य प्रकाश--- ( १ ) जो व्यवहार में विमुग्ध हैं वे प्रज्ञानी हैं । (२) अज्ञानी हो परद्रव्य मेरा है ऐसा निरखते हैं । (३) ज्ञानी पुरुष तथ्य तत्त्वको जानते हुए भी व्यवस्थावश कभी बोलते हैं कि मकान मेरा है आदि सो वह व्यवहारभाषा से ही बोलते हैं । ( ४ ) निश्चयज्ञानी पुरुष परमाणुमात्र भी परद्रव्यको अपना नहीं निरखते। (५) लौकिक जनोंको जो परकर्तृव 'का निश्चय है वह मिथ्यात्व है । (६) लोकोत्तरिक (श्रमण) जनों को भी जिनको परकर्तृत्व का श्रद्धान है वे भी मिथ्यादृष्टि हैं । ( ७ ) एक द्रव्यका दूसरे द्रव्यके साथ कर्तृकर्मत्थ श्रादि सम्बंध निरखना सम्यक् दर्शन नहीं है । (८) प्रत्येक द्रव्यकी शक्ति व परिणति स्वयं स्वयंके अपने ही प्रदेशोंमें परिसमाप्त है इस वस्तुस्वरूपको न जानने वाले कायर होकर विकल्प किया करते हैं । सिद्धान्त - ( १ ) व्यवहारविमूढता में स्वामित्वविषयक अनेक उपचार बन जाते हैं । (२) निश्चयज्ञान में मात्र स्व स्व उपादानको दृष्टि होती है ।
दृष्टि - १ - संश्लिष्ट स्वजात्युपचरित व्यवहारसे परभोक्तृत्व उपचरित प्रसद्भूत व्यवहार तक व परस्वामित्व असभूत व्यवहार (१२३, १२४, १२५, १२६, १२७, १२८, १२६, १२६, १२, १२, १३५) २ - निश्चयनय (४४ से ४७ व ४६ ब ) ।
प्रयोग-- प्रत्येक पदार्थको स्वस्वप्रदेशपरिसमाप्त निरखकर निर्मोह रहना ॥३२४-३२५ ।। अथ इस कथनको युक्तिसे पुष्ट करते हैं कि जीवके जो मिध्यात्वभाव होता है उसका निश्चय कर्ता कौन होता है ? - [ यदि ] यदि [ मिध्यात्वं प्रकृतिः] मिथ्यात्यनामक मोहक - की प्रकृति [आत्मानं ] आत्माको [ मिध्यादृष्टि] मिध्यादृष्टि [ करोति ] करती है ऐसा माना