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________________ सर्वविशुद्धज्ञानाधिकार मिथ्याष्टिरेव स्यात् । अतस्तत्त्वं जानन सुरुमा लर्वमेव मशिनाला गोरामणानां द्वय पामपि योऽयं परद्रव्ये कर्तृव्यवसाय: स तेषां सभ्यग्दर्शन रहितत्वादेव भवति इति सुनिश्चित जानीयात् ।। एकस्य वस्तुन इहान्यतरेण सार्द्ध संबंध एव सकलोऽपि यतो निषिद्धः । तत्कत. ग्रामविपयनगरराष्ट्र, न, च, तत्, तत्, तु, च, मोह, तत्, आत्मन्. एब, एव, मिथ्याष्टि, ज्ञानिन, निस्सशायं, एतत्, यत्, परद्रव्य, अस्मद्, इति, जानन्त, आत्मन्, तत्, न, अस्मद. इति, य, अपि, एतत्, कर्तृधबमाय, परद्रव्य, जानन्त्, इति, दृष्टि रहित । भूलधातु-भण शब्दार्थः, ज्ञा यवनोधने, जल्प व्यक्तायां वाचि भ्वादि, भू सतायां, डुकृञ् करगो । पदविवरण-ववहारभासिएण व्यवहारभाषितेन-तृतीया एक० । उ तु-अव्यय । परद ब्वं परद्रव्यं-प्रथमा एक० । प्रम-पष्ठी एक० । भणति भणन्ति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष बह क्रिया । अविदियत्था अधिदितार्था:-प्रथमा बह जाणंति जानन्ति-वर्तमान लद अन्य पुरुष बह। णिच्छयेण नियनयेन-तृतीया एक० । उ तु ण न य च-अव्यय । मह मम-पष्ठी एक० । परमाणुमिच्न परमाणुमावं-प्रथमा एकवचन । अवि अपि-अव्यय । किचि किचित्-अव्यय । जह यथा--अव्यय । को क:प्रथमा एकवचन । वि अपि-अव्यय । णरो नरः-प्रथमा एक जंपद जल्पति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एकवचन । अम्ह अस्माक-पष्ठी बह गामविसयणयरस्ट ग्रामविषयनगर रास्ट्र-प्रथमा एक।णन.यु च-अव्यय । होति भवति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष बहु० । तस्स तस्य-परठी एक० । ताणि तानि-प्रथमा कर्तापनका निश्चय है वह उनके सम्यग्दर्शनके न होनेसे ही है," ऐमा सुनिश्चित जाने । भावार्थ---ज्ञानी होकर भी यदि व्यवहारमोही हो, तो वह लौकिकजन हो या मुनिजन, दोनों अब इसी अर्थको कलशरूप काव्य में कहते हैं - एकस्य इत्यादि । अर्थ—चंकि इस जगत में एक वस्तुका अन्य वस्तुके साथ सभी सम्बन्ध निषेधा गया है इस कारण जहाँ वस्तु भेद है वहाँ कर्ता-कर्मकी घटना हो नहीं है । अत: मुनिजन तया लौकिकजन वस्तुके यथार्थ स्वरूपको प्रकर्ता ही श्रद्धामें लाप्रो।। ___ अब अपने भावकर्मका कर्ता अज्ञानसे चेतन ही है, ऐमा काव्य में कहते हैं---ये तु इत्यादि । अर्थ---ग्रहो, जो पुरुष वस्तुस्वभावके नियमको नहीं जानते और जिनका पुरुषार्थ रूप तेज प्रज्ञानमें डूब गया है वे दीन होकर कर्मोको करते हैं । अतः भाव कर्मका कर्ता चेतन ही स्वयं है, अन्य नहीं है । भावार्थ----प्रशानी मिथ्यादृष्टि वस्तुके स्वरूपका नियम जानता नहीं है, और परद्रव्यका कर्ता बनता है, तब चूकि वह स्वयं यों अज्ञानरूप परिणमता है इस कारण अपने भावकर्मका कर्ता अज्ञानी ही है, अन्य नहीं है । ऐमा निश्चित समझिये । प्रसंगविवरण-अनन्तरपूर्व गाथात्रिकमें यह निष्कर्ष प्रसिद्ध किया था कि प्रात्मतत्त्व का परद्रव्य के साथ कर्तृकर्मत्व प्रादि कोई सम्बन्ध नहीं है । अब इन चार माथानोंमें बताया है कि परद्रव्योंका जो अन्य के साथ कर्तृ कर्मत्व स्वामित्व आदि कुछ भी सम्बन्ध मानते हैं वे मिथ्यादृष्टि हैं।
SR No.090405
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherBharat Varshiya Varni Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1995
Total Pages723
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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