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________________ समयसार व्यवहारभाषितेन तु परद्रयं नम भणत्यविदितार्थाः, जानति निश्चयेन तु न च मम परमाणुमात्रमपि किंचित्। यथा कोऽपि नरो जरूपति अस्माकं ग्रामविषयनगरराष्ट्र, न च भवंति तस्य तानि तु भणति च मोहेन स आत्मा। एवमेव मिथ्याष्टिानो निस्संशयं भवत्येषः । यः परद्रव्यं ममेति जाननात्माकं करोति ॥३२६|| तस्मान मम इति झावा येषामप्येतेषां कर्तृ व्यवसायं । परद्रव्ये जानन जानीयाद् दृष्टिरहितानां ॥३२७॥ ___अशानिन एव व्यवहारविमूढा परद्रव्यं ममेदमिति पश्यति । ज्ञानिनस्तु निश्चयप्रति बुद्धाः परद्रव्यकणिकामात्रमपि न ममेदमिति पश्यति । ततो यथात्र लोके कश्चिद् व्यवहारवि. मूढः परकीयग्रामवासी ममायं ग्राम इति पश्यन् मिथ्याष्टिः । तथा यदि ज्ञान्यपि कथंचिद् व्यवहारविमूढो भूत्वा परद्रव्यं ममेदमिति पश्येत् तदा सोऽपि निस्संशयं परद्रव्यमात्मानं कुर्वाणो मिच्छादिदि पाणि, गिमसंगाय. एट, परदन्यः भाग, शनि, जाणत, अप्पय, त, ण, अम्ह, इत्ति, दु, वि, एत, कत्तविवसाय, परदन्व, जाणत, जाणिज्ज, दिविरहिअ । धातुसंश-भण कथने, जाण अवबोधने, जप व्यक्तायां वाचि, हो सत्तायां, ह्व सत्तायां, कुण करणे । प्रातिपदिक-व्यवहारभाषित, तु, परद्रव्य, अस्मद, . अविदितार्थ, निश्चय, तु, न, च, अस्मद्, परमाणुमात्र, अपि, किंचित्, यथा, किम्, अपि, नर, अस्मद, ग्राम है, देश है, नगर है व राष्ट्र है [अल्पति] इस प्रकार कहता है [तु तानि] किन्तु वे ग्राम ! प्रादिक तस्य] उसके नि च भवंति] नहीं हैं सि प्रात्मा] वह प्रात्मा [मोहेन च भरणति] मोहसे मेरा, मेरा ऐसा कहता है । [एवमेव] इसी तरह [यः] जो ज्ञानी [परद्रध्यं मम इति] परद्रव्य मेरा है ऐसा [जानन] जानता हुमा [प्रात्मानं करोति] अपनेको परद्रव्यमय करता है [एषः] वह [निःसंशयं] निःसंदेह [मिथ्यादृष्टिः भवसि] मिथ्यादृष्टि होता है । [तस्मात्] ! इसलिये शानी [म मम इति ज्ञात्वा] परद्रव्य मेरा नहीं है ऐसा जानकर [एतेषां द्वघषामपि इत दोनोंके ही याने लोकिक जन तथा मुनियोंके परब्रव्ये] परद्रव्य में [कत व्यवसायं कर्ता'पनके व्यापारको [जानन] जानते हुए यह व्यवसाय [दृष्टिरहिताना] सम्यग्दर्शनसे रहित । पुरुषोंको [जानीयात] जानना चाहिये अर्थात उन दोनोंको सम्यग्दर्शनरहित जानना चाहिये । तात्पर्य जो परद्रव्यको अपना मानता है वह मिथ्याष्टि है। टोकार्थ-प्रशानी जन ही व्यवहार में विमूढ होते हुए परद्रव्य मेरा है ऐसा देखते हैं, किन्तु ज्ञानी जन निश्चयसे प्रतिबुद्ध होते हुए परद्रव्यको कणिकामात्रको भी यह मेरा है ऐसा नहीं देखते। इसलिए जैसे इस लोकमें कोई दूसरेके ग्राममे रहने वाला व्यवहारविमूढ पुरुष 'यह मेरा ग्राम है' ऐसे देखता हुमा मिथ्याष्टि कहा जाता है, उसी प्रकार ज्ञानी भी किसी प्रकारसे व्यवहारमें विमूढ होकर 'यह परद्रव्य मेरा है' ऐसे देखे तो उस समय वह भी परद्रव्य को अपना करता हुमा मिथ्याष्टि ही होता है । अतः तत्त्वको जानने वाला पुरुष सभी परपरद्रव्य मेरा नहीं है' ऐसा जानकर "लौकिकजन और श्रमगजन इन दोनोंके जो परद्रव्य में
SR No.090405
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherBharat Varshiya Varni Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1995
Total Pages723
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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